Thursday, May 26, 2011

हमने बाबा को देखा है

बाबा नागार्जुन के निधन पर एक कविता लिखी थी जिसमें बाबा के गुस्से, प्यार, तंज और उदासी से जुड़े तमाम-तमाम मूड्स और खिलंदड़ी अदाएँ हैं। उनसे हुई बहुतेरी मुलाकातों की स्मृतियाँ भी। यह कविता आजकल के बाबा नागार्जुन विशेषांक में छपी है। शायद मित्रों को यहाँ उसे पढ़ना सुखकर लगे। तो लीजिए, पढ़िए यह कविता, हमने बाबा को देखा है--

हमने बाबा को देखा है

प्रकाश मनु

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

कभी चमकती सी आँखों से
गुपचुप कुछ कहते, बतियाते,
कभी खीजते, कभी झिड़कते
कभी तुनककर गुस्सा खाते।
कभी घूरकर मोह-प्यार से
घनी उदासी में छिप जाते,
कभी जरा सी किसी बात पर
टप-टप-टप आँसू टपकाते।
कभी रीझकर चुम्मी लेते
कभी फुदककर आगे आते,
घूम-घूमकर नाच-नाचकर
उछल-उछलकर कविता गाते,
लाठी तक को संग नचाते
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

जर्जर सी इक कृश काया वह
लटपट बातें, बिखरी दाढ़ी,
ठेठ किसानी उन बातों में
मिट्टी की है खुशबू गाढ़ी।
ठेठ किसानी उन किस्सों में
नाच रहीं कुछ अटपट यादें,
कालिदास, जयदेव वहाँ हैं
विद्यापति की विलासित रातें।
एक शरारत सी है जैसे
उस बुड्ढे की भ्रमित हँसी में,
कुछ ठसका, कुछ नाटक भी है
उस बुड्ढे की चकित हँसी में।

सोचो उस बुड्ढे के संग-संग,
उसकी उन घुच्ची आँखों से,
हमने कितना कुछ देखा है!

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

कहते हैं, अब चले गए हैं
क्या सचमुच ही चले गए वे?
जा सकते हैं छोड़ कभी वे
सादतपुर की इन गलियों को,
सादतपुर की लटपट ममता
शाक-पात, फूलों-फलियों को?

तो फिर ठाट बिछा है जो यह
त्यागी के सादा चित्रों का,
और कृषक की गजलें, या फिर
दर्पण से बढिय़ा मित्रों का।
विष्णुचंद्र शर्मा जी में जो
कविताई का तंज छिपा है,
युव पीढ़ी की बेचैनी में
जो गुस्सा और रंज छिपा है।
वह सब क्या है, छलक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में,
मृगछौनों सा भटक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में।
यह तो सचमुच छंद तुम्हारा
गुस्से वाली चाल तुम्हारी,
यही प्यार की अमिट कलाएँ
बन जाती थीं ढाल तुम्हारी।
समझ गए हम बाबा, इनमें
एक मीठी ललकार छिपी है,
बेसुध खुद में, भीत जनों की
इक तीखी फटकार छिपी है!

जो भी हो, सच तो इतना है
(बात बढ़ाएँ क्यों हम अपनी!)
सादतपुर के घर-आँगन में
सादतपुर की धूप-हवा में,
सादतपुर के मृदु पानी में
सादतपुर की गुड़धानी में,
सादतपुर के चूल्हे-चक्की
और उदास कुतिया कानी में—
हमने बाबा को देखा है!

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

करते हैं अब यही प्रतिज्ञा
भूल नहीं जाएँगे बाबा,
तुमसे मिलने सादतपुर में
हम फिर-फिर आएँगे बाबा,
जो हमसे छूटे हैं, वे स्वर
हम फिर-फिर गाएँगे बाबा।

स्मृतियों में उमड़-घुमड़कर
आएँगी ही मीठी बातें,
फिर मन को ताजा कर देंगी
बड़े प्यार में सीझी बातें!

कई युगों के किस्से वे सब
राहुल के, कोसल्यायन के,
सत्यार्थी के संग बिताए
लाहौरी वे दिन पावन-से।
बड़ी पुरानी उन बातों को
छेड़ेंगे हम, दुहराएँगे,
दुख हमारे, जख्म हमारे
उन सबमें हँस, खिल जाएँगे।

तब मन ही मन यही कहेंगे
उनसे जो हैं खड़े परिधि पर,
तुम क्या जानो सादतपुर में
हमने कितना-कुछ देखा है!
काव्य-कला की धूम-धाम का
एक अनोखा युग देखा है।
कविताई के, और क्रांति के
मक्का-काबा को देखा है!

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

हम बाबा के शिष्य लाड़ले
हम बाबा के खूब दुलारे,
बाबा के नाती-पोते हम
बाबा की आँखों के तारे।
हम बाबा की पुष्पित खेती
हममें ही वे खिलते-मिलते,
हमसे लड़ते और रीझते
हममें ही हँस-हँसकर घुलते।

हमको वे जो सिखा गए हैं
कविताई के मंत्र अनोखे,
हमको वे जो दिखा गए हैं
पूँजीपति सेठों के धोखे।
और धार देकर उनको अब
कविताई में हम लाएँगे,
दुश्मन के जो दुर्ग हिला दे
ऐसी लपटें बन जाएँगे।
खिंची हुई उनसे हम तक ही
लाल अग्नि की सी रेखा है!
हमने बाबा को देखा है!

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

14 comments:

  1. बहुत बढिया कविता है। बाबा के सभी रूप साकार हो गए।

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  2. देखकर बड़ा सुख मिला अनुराग। मैं समझता हूँ, तुम मेरे मन को समझ सकते हो कि किस भावदशा में यह कविता लिखी गई होगी। बहुत-बहुत धन्यवाद। सस्नेह, प्र.म.

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  3. वाह, बाबा के बहाने पूरा सादतपुर जीवित हो उठा. याद है जब हम दोनों त्यागी जी के यहाँ गए थे शायद १९८८ में, तब बाबा भी वहीँ आ गए थे
    त्यागी जी के यहाँ अन्नपूर्णा यानी भाभीजी के हाथों की बनी खिचडी का भी भोग लगाया था हमने डरते डरते मैंने बाबा से अपनी डायरी में कुछ लिखने को कहा था तो उन्होंने दो पंक्तियाँ लिख दी थीं " अगर बड़ा कवि बनना है, तो आलोचक को खुश रखना है." बाबा के अंतिम समारोह में शामिल नहीं हो सका इसका दुःख है. पर बाबा तो शाश्वत बाबा हैं उनका कोई भी समारोह अंतिम कैसे हो सकता है? उन्हें मेरा शत-शत प्रणाम और आपकी इस मूर्त कविता के लिए ढेर सा साधुवाद.
    मेरे लिए १९८८ का अकेला अवसर था जब आपके साथ धीरेन्द्र अस्थाना,डॉ. माहेश्वर, कृषक जी सभी से अल्प समय के लिए मिलना हो गया था आपकी कविता और कविता के बीच में. हालांकि आपने पदयात्रा खूब कराई थी.

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  4. अत्यंत मार्मिक , ह्रदय को छूती , स्मृतियों को जीवंत करती भावभीनी कविता के लिए आपको बधाई.

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  5. भाई साहब , यदि उचित समझे तो POST A COMMENT से word verification को हटा दें . टिप्पणी करने वालों को सुविधा हो जाएगी .

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  6. http://baal-mandir.blogspot.com/

    बाल- मंदिर में आज काका हाथरसी जी की बाल कविता .

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  7. बाबा के सादतपुर का पूरा सजीव चित्र आंखों के सामने उमड आया।

    इस शानदार रचना को हम तक पहुंचाने के लिए हार्दिक आभार।
    ---------
    हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
    अब क्‍या दोगे प्‍यार की परिभाषा?

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  10. प्रिय नागेश और जाकिर अली, जैसा आप लोगों ने कहा, मैंने वर्ड वैरिफिकेशन वाला आप्शन हटा दिया है। पर फालोअर में कुछ समस्या आ रही है, जिसे मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा हूँ। एड ए गैजेट में जाकर देखा, फालोअर वाला टैग वहाँ है और पहले वह होम पेज पर दिखता भी था। पर बीच में कहाँ क्या गड़बड़ हुई, कह नहीं सकता। मेरे डैशबोर्ड में जाने पर फालोअर्स इतने हैं, यह नजर आता है। पर शायद यह फिलवक्त इनएक्टिव है। इसलिए नाम और फोटो नजर नहीं आते। नए माध्यम की ये मुश्किलें तो रहेंगी। पर क्या परवाह। आप लोग मेरे दिल में रहते हैं और मैं आपके दिल में। तो हमारे संवाद को भला कौन रोक सकता है। वह तो जारी रहेगा ही।
    हाँ, बाबा पर लिखी कविता आपको पसंद आई। बहुत अच्छा लग रहा है और मेरी हिम्मत बढ़ गई है। सस्नेह, प्र.म.

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  11. धन्यवाद भाई नीलेश। सस्नेह, प्र.म.

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  12. प्रकाश मनु जी ! बाल साहित्य पर आपने जो कार्य लिया है वह अद्भुत है। लोक साहित्य के प्रतिरूप सत्यार्थी जी पर आपकी यह कविता उनका सचित्र वर्णन कर रही है।

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