सर्वेश्वर उन बड़े कवियों में से हैं जिन्होंने बड़ों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी लिखा और खूब लिखा। उन्होंने अपने समय की बाल कविता को नया रंग-ढंग और नया मुहावरा दिया। सच तो यह है कि सर्वेश्वर हिंदी बालकविता के उन युगनायकों में से हैं जिनके बिना आज की बाल कविता की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सर्वेश्वर की एक से एक दिलचस्प कविताएं हैं जिनमें छिपे हुए विनोद भाव का क्या कहना। नन्हा ध्रुवतारा संग्रह में सर्वेश्वर की एक बाल कविता है--मेले में लल्ला। इसे पढ़ते हुए बरबस हँसी आती है और जब-जब मैंने इसे पढ़ा मेरे भीतर बात कौंधी कि कहीं यह योगेंद्रकुमार लल्ला पर तो नहीं लिखी गई, जो धर्मयुग छोड़कर बालपत्रिका मेला निकालने के लिए कलकत्ता गए थे।
अलबत्ता पढ़ें सर्वेश्वर की यह अनूठी कविता और मन ही मन इसमें छिपे आनंद-भाव को सराहिए--
कलकत्ते में खो गए लल्ला,
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला।
घर में बैठे थे चुपचाप,
करते रामनाम का जाप।
भागे सुन मेले का हल्ला
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला।
कलकत्ते में खो गए लल्ला।
(सर्वेश्वर के संग्रह नन्हा ध्रुवतारा की कविता मेले में लल्ला का एक अंश। पुस्तक के प्रकाशक हैं राधाकृष्ण प्रकाशन, न. दि.)
प्रिय मनुजी
ReplyDeleteसर्वेश्वरजी कि यह बाल कविता दे कर आपने सचमुच मेरे
मन की इच्छा पूरी कर दी. दरअसल में व्यक्तिगत रूप से
इसे उनकी इब्नबतूता से भी श्रेष्ठ बाल कविता मानता हूँ.
एक तो इसकी उठान ही इतनी प्यारी है फिर उसके ऊपर
जो चित्र इस में दृश्यमान होते हैं वे भी अद्भुत हैं. लोक शब्दों
का अपना आनंद है. क्या कहूं, शब्द कम पड़ रहे हैं.
धन्यवाद तैलंग भाई, यह कविता कभी पूरी दूँगा। बड़ी ही मजेदार कविता है जिसमें कलकत्ते के मेले में अकेले छूट गए किसी अति उत्साही और अधीर बच्चे का वर्णन है। चलो, यहाँ तक तो ठीक, पर जब पता चलता है कि मेले में अगाड़ी-पिछाड़ी के चक्कर में खो गया वह बच्चा असल में योगेंद्रकुमार लल्ला हैं, तो हमारी बेसाख्ता हँसी छूट जाती है। सस्नेह, प्र.म.
ReplyDeleteप्रिय मनु जी,
ReplyDeleteसरवेश्वर जी कि यह पूरी कविता मेरे पास है हालांकि आपसे कोई चीज़ जब भी मिलती है उसकी खुशी अलग ही होती है. दर असल सर्वेश्वर जी के पूरे बाल साहित्य पर मैं अपने ब्लॉग पर शीघ्र लिखने वाला हूँ. मेरी लिंक है- www.rameshtailang.blogspot.coom. आपने मेरी बाल कविताओं के वारे में जो लिखा और जैसी सहृदयता से लिखा उसे आप जैसा ही कोई दृष्टा लिख सकता है. आपसे कोई भी संवाद करते समय मैं एक nostaligia में पहुँच जाता हूँ. और क्या कहूँ रमानाथ अवस्थी जी के एक गीत का मुखडा है: अनाहूत ही आ पहुंचा हूँ आज तुम्हारे द्वार, ठुकरादो या प्यार करो ये तो तेरा अधिकार.
सादर-रमेश तैलंग
कविता पढ़कर अपनी जन्मस्थली अनूपशहर की याद आ गईI इसी प्रकार के प्रचलित लोक शब्दों का प्रयोग करते थे जो अपनत्व और फकीरी से भरे हैं Iबाल कविता में इनका समन्वय देख पुलकित हो उठी I
ReplyDeleteसुधा भार्गव
sudha ji, aapki pratikriyaen sukhad hain. achchha lagta hai ki aapne apne bachapan aur bachapan ki smritriyon ko sambhalkar rakha hain. aapka bal sahitya padhne ka man hai. sasneh, manu
ReplyDeleteडॉक्टर मनुजी बाल कविता का इतिहास से बारबार गुजरना बाल कविता प्रति सम्मोहित करता है कोशिस्ग कर रहा हूँ बालकविता समझने और रचने की ..
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