Wednesday, May 11, 2011

दिविक रमेश का बालनाटक बल्लू हाथी का बालघर


दिविक रमेश ने बड़ों के लिए तो लिखा ही है और समकालीन कवियों में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है, पर बच्चों के लिए भी उन्होंने बड़ी सुंदर कविताएँ और कहानियाँ लिखी हैं। बल्लू हाथी का बालघर उनका बच्चों के लिए लिखा गया पहला नाटक है। और नाटक भी खासा खिलंदड़ा। हालाँकि उससे बच्चों को बढ़िया सीख भी मिलतती है, पर वह भी खेल के आनंद के साथ। यानी बच्चों को खेल-खेल में मगन करता हुआ नाटक।

नाटक में जिस जंगल की कथा है, वह खासा प्रजातांत्रिक जंगल है जिसमें सारे जानवर सभा में इकट्ठे होकर फैसले करते हैं और वहां शेर से लेकर खरगोश, बल्कि और नन्हे जीवों को भी अपनी बात कहने का पूरा हक है। ऐसे ही एक दिन सभा हो रही थी, तभी एक थका हुआ बूढ़ा हाथी आया और पीछे आकर बैठ गया। सबके पूछने पर उसने बताया कि वह भी इसी जंगल का ही है पर बरसों पहले उसे आदमी पकड़कर ले गए थे और पूरा जीवन वह आदमियों के बीच रहकर उनकी सेवा करता रहा। पर मनुष्यों का जानवरों के प्रति रवैया बेहद तकलीफ देने वाला है। कहकर बल्लू हाथी ने अपने कष्टभरे अनुभव बताए तो सभी को आदमियों पर गुस्सा और बल्लू हाथी पर बड़ा प्यार आया। आदमी किस तरह जंगल और पशुओं पर अत्यातार करके पर्यावरण को नष्ट कर रहा है, इसका छोटे-छोटे नाटकीय संवादों के जरिए वर्णन दिल छू को जाता है।

यहाँ तक तो नाटक में विषाद के गहरे रंग हैं। पर फिर फैसला होता है कि बूढ़े बल्लू हाथी का जंगल के सारे जानवर खयाल रखेंगे और बल्लू हाथी जंगल के सभी जानवरो के बच्चों के लिए एक क्रैच यानी बालघर खोलेगा। सबको कहानियाँ सुनाकर उनका खूब मनोरंजन करेगा और उन्हें कहानियों के जरिए ही जीवन की अच्छी बातें सिखाएगा।
बल्लू हाथी अपनी इस भूमिका को कितने खूबसूरत ढंग से निभाता है और बच्चों से उसकी दोस्ती कैसी नायाब हैं, बच्चे बल्लू हाथी को कितना प्यार करते हैं, यह सब तो शायद नाटक पढकर ही अच्छी तरह जाना जा सकेगा। अलबत्ता दिविक का यह नाटक इतना रस-आऩंदपूर्ण और कसा हुआ है कि यकीन नहीं होता कि यह उनका पहला बालनाटक है। जंगल के अनोखे बालघर का बल्लू हाथी वाकई दिलों में गहरी जगह बना लेने वाला बड़े कद का कैरेक्टर है। उम्मीद है, दिविक के ऐसे ही कुछ और बढ़िया बाल नाटक आगे भी पढ़ने को मिलेंगे।

बल्लू हाथी का बालघर को राजकमल प्रकाशन ने छापा है। 24 पृष्ठों की इस किताब का मूल्य है, 40 रुपए। चित्र चंचल ने बनाए हैं और वे सचमुच आनंदित करने वाले हैं।

7 comments:

  1. सम्मान्य दिविक जी की लेखनी का जबाब नहीं . उनकी कवितायेँ मुझे विशेष प्रिय हैं . किशोरों के लिए उनका प्रदेय अद्भुत है . उनसे मिलाने के लिए आपको धन्यवाद.

    ... हाँ , आज आदरणीय रमेश तैलंग जी की कविता है बाल मंदिर
    http://baal-mandir.blogspot.com/
    में .

    श्रद्धेय रवीन्द्र नाथ जी की कविता भी जल्दी ही प्रस्तुत कर आपकी भावनाओं को नमन करूँगा.
    आपका अनुज , नागेश

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  2. प्रकाश मनु जी ! आपने बहुत ही मन से पढ़ा हॆ इस बाल नाटक को । ऒर मन से ही प्रतिक्रिया दी हॆ । ऎसी ही बेलाग ऒर वस्तुपरक प्रतिक्रियाओं से साहित्य ऒर स्वयं लेख का वास्तविक भला होता हॆ। सच में आपकी टिप्पणी पढ़ कर बहुत अच्छा लग रहा हॆ -केवल इसलिए नहीं की उसमें प्रशंसा हॆ बल्कि इसलिए कि आपकी अभिव्यक्ति सच्ची ऒर ईमानदार हॆ ।

    ऒर देखिए न सोने पर सुहागा । डॉ. नागेश पांडेय "संजय" ने, जो स्वयं एक महत्तवपूर्ण-उल्लेखनीय रचनाकार हॆं ऒर साथ ही रचनाओं के मर्मज्ञ पारखी हॆं, अपनी राय देकर मुझे ऒर नाटक को ऒर महत्तव्पूर्ण बना दिया हॆ । उन्हें भी धन्यवाद । दिविक रमेश

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  3. धन्यवाद भाई दिविक जी और प्रिय नागेश भाई, आप लोगों की राय जानकर थोड़ा बल मिला। यों ससमझिए कि शुरुआत शाययद ठीक-ठाक रही। मैंने तय किया है कि बाल साहित्य की जो भी महत्वपूर्ण पुस्तकें मेरे पास आएँगी, उनका जिक्र यहाँ करता रहूंगा। ताकि नए आने वाले अच्छे बाल साहित्य के बारे में सभी को एक जगह जानकारी मिल जाए।
    देखिए, कितना मैं कर पाता हूँ। पर यह कोशिश करता रहूँगा, यह वचन मैं देता हूँ। सस्नेह, प्र.म.

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  4. आप से हमें ऒर हिदी बाल साहित्य को बहुत आशाएं हॆं । बस कुछ तथाकथित महान लोगों तक की दलबंदियों के दुराग्रहों से बचे रहे । उससे अन्तत: कुछ हांसिल होने वाला नहीं हॆ ।

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  5. प्रिय नागेश, रमेश तैलंग की कविता बालमंदिर में देख ली और उसे पढ़कर आनंदित भी हुआ। कविता तो सचमुच जादूगरी सरीखी है...पर उसके लिए तुमने जो बिल्ली ढूँढ़ी है, वह भी कम गजब की नहीं है।
    कुल मिलाकर तुम्हारे उत्साहपूर्ण आयोजन की बार-बार तारीफ करनी ही पड़ती है। एक सही रास्ता तुमने पकड़ा है, इस पर तुम्हें दूर तक जाना है। सस्नेह, प्र.म.

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  6. दिविक भाई,
    आपकी यह टिप्पणी मैंने देखी थी और इस पर दो शब्द कहना भी चाहता था, पर फिर यह एकाएक गायब हो गई। मुझे समझ में ही नहीं आया कि यह हुआ क्या। और इसीलिए इस पर जो लिखना चाहता था, वह भी छूट गया।

    पर आज देखता हूँ कि यह टिप्पणी फिर से मौजूद है। मुझे लगता है, पीछे दो-तीन दिन ब्लागस्पाट के कुछ गड़बड़ी के रहे। खुद मेरी लिखी बहुत सी टिप्पणियाँ गायब हुईं। तो वही हाल आपकी टिप्पणी का भी हुआ होगा।

    और अब आपकी बात। मैं शुक्रगुजार हूँ कि आपने एक अच्छी, बहुत ही अच्छी सलाह दी। पर दिविक जी, इस मामले में मेरे गुरु रामविलास जी हैं, जिनकी मैं जानता हूँ, आप भी बेहद कद्र करते हैं। उन्होंने मुझे सिखाया था कि प्रकाश मनु,तुम्हारा मन जिसे ठीक कहता हो, वह कहो और करो...और इस मामले में किसी बड़े से बड़े शक्तिशाली शख्स की परवाह मन करो। आपकी राय भी कुछ ऐसी ही है। यकीन मानिए, प्रकाश मनु उनमें से नहीं, जो अपनी लीक छोड़़कर सुविधाओं के रास्ते पर चल पड़े हैं। मुझे मुश्किलें झेलने और अकेले चलने की आदत है और यह आदत अंत तक मेरे साथ रहेगी। मैं आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हूँ।
    सस्नेह, प्र.म.

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  7. मुझे भरोसा तो पहले ही था । आपने इसे फिर पुख्ता कर दिया हॆ । जिनसे अपेक्षाएं होती हॆं उन्हीं को मन के भय से परिचित भी कराया जाता हॆ ऒर सलाह रूपी टोटके से नज़र भी उतारी जाती हॆ।
    सस्नेह: दि.र.

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