Thursday, March 29, 2012

बेकरार साहब की नायाब कविता - ‘भूख’

बेकरार साहब आज नहीं हैं, पर उन्होंने आज के निर्मम सच को कहने वाली जैसी जलती हुई कविताएँ लिखी हैं, वैसी कविताएँ आज बहुत कम पढ़ने को मिलती हैं। इनमें ‘भूख’ तो लाजवाब कविता है जिसे पढ़ते ही बेकरार साहब का आविष्ट चेहरा आँखों के आगे आ जाता है। ‘भूख’ कविता को खुद बेकरार साहब के मुँह से सुनना एक अलग अनुभव था। मुझे याद है, जब मैंने सिरसा के प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में भीष्म साहनी जी को, जिनकी अध्यक्षता में यह सम्मेलन हुआ था, यह कविता सुनवाई, तो वे अवाक-से रह गए थे। फिर बोले, “वाकई बहुत पावरफुल कविता है!” बेकरार साहब पानीपत के थे और सारा पानीपत इस फक्कड़ और अलमस्त कवि को बहुत प्यार करता था। आज बेकरार साहब नहीं हैं, पर यह कविता आज भी हमें उस विलक्षण और खुरदरे कवि की याद दिला देती है -

क्या यह त्रासदी नहीं है –
कि मेरी भाषा के विशाल शब्दकोश में
भूख का कोई पर्यायवाची नहीं है।
और मेरा यह कहना
कि मैं भूखा हूँ
इतना भी संप्रेषित नहीं कर पाता
जितना मेरा यह कहना
कि तुहारे पाँव के नीचे साँप है
या तुम्हारे मकान में आग लग गई है!

निश्चित रूप से
मैं उस भूख की बात नहीं करता
जो तुम्हें नाश्ते और दोपहर के बोजन
के बीच लगती है।
मैं तो उस भूख की बात करता हूँ
जो रोज आधी ही मिट पाती है
और दूसरे दिन की भूख से जुड़ जाती है
चिपेक देती है तुम्हारे चेहरे पर
कोई याचक मुद्रा
तोड़ देती है हमारा मेरुदंड
उम्र की रफ्तार बढ़ा देती है।
छोड़ देती है बस इतना पौरुष बाकी
कि हम पत्नी को डाँट सकें
या पैदा कर सकें एक और अपने जैसा!
वरना हर बात में नामर्द बना देती है
सीमाविहीन सभ्य।

यह अर्ध-भूखापन
मौत और जिंदगी के बीच
कहीं जीने की दारुण पीड़ा
एक सुलगता एहसास,
बोलकर कहने से
बन जाता है रुदन मात्र
और रोना नहीं है समस्या का समाधान,
आप कुछ समझे श्रीमान!
किसलिए है बोलने की आजादी का विधान?

भूख और भोजन के बीच आते हैं
भाग्य, भाषा, भगवान और भाषण
भ्रांतियाँ, भांड और भद्रपुरुष
सबके सब एक झुनझुना हमारे हाथों में थमा देते हैं
ताकि हम झनकाते रहें,
और बना देते हैं एक सेफ्टी वाल्व
ताकि भाप संपीड़ित न हो पाए
एक शक्ति न बनने पाए
इंजन की तरह,
वरना हम नई सभ्यता में चले जाएँगे
और इन लोगों के काम नहीं आएँगे!

फिर भूखे को भिखारी बनाकर
भीख देने वाली
इस गौरवशाली सभ्यता का क्या होगा?
भूखे सौंदर्य को नंगे नाच और अनिच्छित सहवास के बाद
भोजन देने वाली इस महान संस्कृति का क्या होगा!

उनकी भी समस्याएँ हैं
बात को एकतरफा मत सोचो,
भीख कम है तो सूर्य-नमस्कार करो
वो चाहते हैं कहीं कुछ न उठे –
कोई सिर, कोई हाथ कोई नारा!