Saturday, May 28, 2011
याद आते हैं सत्यार्थी जी
समर्पण--
उन सभी को जिनकी स्मृतियों में
सत्यार्थी जी का प्रसन्न चेहरा
और जिंदादिली से भरी सदाबहार शख्सियत
आज भी दस्तक देती है।
लोक साहित्य का वह युगनायक
सत्यार्थी जी आज होते तो एक सौ तीन बरस के होते। हालाँकि लोकगीतों का वह फक्कड़ फकीर आज नहीं है, यकीन नहीं होता। अपने बाद वाली पीढ़ी को इतने प्यार से गले लगाने वालों में या तो मैंने बाबा नागार्जुन को देखा था या फिर सत्यार्थी जी को, जिनका प्यार हर मिलने वाले पर न्योछावर होता था। उनकी जन्मशताब्दी आई और चुपचाप चली गई। उनकी जीवनी मैं लिख रहा था और चाहता था कि उनके जन्मशताब्दी वर्ष में ही आ जाए। पर वह हो नहीं सका। मैं ही उसे पूरा नहीं कर सका था। अब शायद कुछ ही समय में वह छपकर आ जाए। आज सत्यार्थी जी का जन्मदिन है, तो मन में घुमड़ती उनकी यादों के साथ ही उन पर लिखी गई इस जीवनी-पुस्तक की कहानी यहाँ दे रहा हूँ। शायद मित्रों को उसे पढ़ना सुखकर लगे--
लोक यायावर देवेंद्र सत्यार्थी उन युगनायकों में से थे जिन्होंने लोकगीतों को अपार प्रतिष्ठा दिलवाई और स्वाधीनता संग्राम में लोक की बड़ी और रचनात्मक भूमिका को रेखांकित किया। कोई बीस साल तक उन्होंने भारत के गाँव-गाँव की परिक्रमा कर, जनगंगा की भावधाराओं की तरह दूर-दूर तक पसरी टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों को अपने धूलभरे पैरों और अथक इरादों से नापते हुए देश का चप्पा-चप्पा छान मारा। यहाँ तक कि बर्मा और लंका भी हो आए। और वह भी खाली जेब। लेकिन जहाँ वे जाते, वहाँ उनकी असाधारण लगन से प्रभावित होने वाले लोग मिल जाते। कहीं रुकने और खाने-पीने का थोड़ा इंतजाम हो जाता और लोकयात्री अपना थैला उठाकर अगले मुकाम की ओर बढ़ जाता। लोग ही उनकी अगली यात्रा के लिए बस या रेलगाड़ी के किराए का इंतजाम कर देते और लोकगीतों की तलाश में निकले सत्यार्थी जी का अकेले का यह अद्भुत कारवाँ बिना थके आगे बढ़ता ही जाता।
बाद में विवाह हुआ तो पत्नी शांति भी सहयात्री हो गईं। नन्ही कविता का जन्म भी इसी सफर में हुआ और वह भी एक नन्ही सहयात्री हो गई। इसी अथक लोकयात्रा में महात्मा गाँधी और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का आशीर्वाद मिला और दोनों ने ही बड़े भावपूर्ण शब्दों में सत्यार्थी जी के काम के महत्व को रेखांकित करते हुए, इसे देश का काम बताया, जिसमें लोक हृदय की सच्ची झाँकी है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसे राष्ट्रीय-सांस्कृतिक जागरण माना और याद किया कि बचपन में उनका यह सपना था कि वे बैलगाड़ी में बैठकर पूरे बंगाल की परिक्रमा करें और पल्ली गीतों (बांग्ला लोकगीतों) का संग्रह करें। गुरुदेव का वह सपना भले ही पूरा नहीं हो सका, पर सत्यार्थी जी की अनोखी धुन में उन्हें उसी सपने की जगमगाहट नजर आई। उन्होंने इस निराले खानाबदोश की डायरी में एक कविता की ये पंक्तियाँ लिखीं, ‘‘ओ खानाबदोशो, मेरे शब्दों में छोड़ जाओ, अपनी खुशबू!’’
गाँधी जी हों या गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, दोनों ही सत्यार्थी जी को अकसर चर्चाओं के लिए बुलाते थे और उनसे विस्तार से उनकी अनजानी लोकयात्राओं और उनसे हासिल हुए सुंदर भावपूर्ण और रंग-रँगीले लोकगीतों की बाबत पूछते थे। शांतिनिकेतन तो एक तरह से सत्यार्थी जी का हॉल्ट स्टेशन था। कहीं भी आते-जाते हुए अपनी अनिश्चित यात्राओं के बीच वे शांतिनिकेतन जाने का अवसर जरूर निकाल लेते। वहाँ संथाल आदिवासियों के लोकजीवन को निकट से देखने-जानने के साथ-साथ गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से खुली अनौपचारिक चर्चाओं का सुख मिलता था। गुरुदेव ने उनसे कहा था कि वे जब भी शांतिनिकेतन में हों, शाम की चाय के समय उनसे मिलने और चर्चा के लिए जरूर आएँ।
सत्यार्थी जी के लिए यह दुर्लभ सुख था। कवींद्र रवींद्र के सृजन-क्षणों को नजदीक से महसूस करने और उनसे विभिन्न विषयों पर विचार-विनिमय का यह अवसर सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं के लिए मानो पाथेय बन गया। इससे अपनी कठिन और दुर्गम यात्राओं के लिए उन्हें खासी ऊर्जा और नैतिक बल मिला। और बेशक इससे गाँवों की धूलभरी पगडंडियाँ उनके लिए घर सरीखी होती चली गईं, जहाँ अपनी धुन में मगन उनके कदम आगे बढ़ते जाते, बढ़ते ही जाते। रास्ते में गाँव वालों से मिलना, उनसे गीत सुनकर उन्हें कापी में उतारना, उनमें आने वाले आंचलिक शब्दों और लोक परंपराओं की जानकारी लेकर उनके भाव को समग्रता से ग्रहण करना और फिर आगे की यात्रा। इसी यात्रा में देश के हर अंचल की भाषाएँ सीख लीं गईं। ऐसे लोग भी मिले जिनकी मदद से गीत के मूल भाव को ग्रहण कर पाने में आसानी हुई। फिर इन लोकगीतों पर सत्यार्थी जी ने जो लेख लिखे, उनकी दूर-दूर तक धूम रही। ‘हंस’, ‘विशाल भारत’ और ‘प्रीतलड़ी’ के अलावा, ‘मॉडर्न रिव्यू’ और न्यूयार्क से निकलने वाली ‘एशिया ’ पत्रिका तक ने उन्हें बड़े सम्मान से छापा।
खुद गाँधी जी विशाल भारत में छपने वाले सत्यार्थी जी के लेखों को बहुत रस लेकर पढ़ते थे। इसका जिक्र उन्होंने सत्यार्थी जी को लिखे एक आत्मीय पत्र में किया है। और सन् 1936 के फैजपुर कांग्रेस अधिवेशन में गाँधी जी ने काका कालेलकर को खास तौर से भेजकर सत्यार्थी जी को उस अधिवेशन में शिरकत करने के लिए बुलाया था। वहाँ सत्यार्थी जी ने लोकगीतों पर मुक्त मन से व्याख्यान दिया, तो उनके मुँह से भारत की गुलामी की पीड़ा से जुड़ा एक करुण लोकगीत सुनकर गाँधी जी ने भावुक होकर कहा, ‘‘मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण एक पलड़े में रख दिए जाएँ और दूसरे में यह अकेला लोकगीत, तो लोकगीत का पलड़ा ही भारी रहेगा।’’
इससे पता चलता है, लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी ने उस दौर में लोक और लोकगीतों को राष्ट्रीय जागरण का पर्याय बनाकर कैसे जन-जन में प्रतिष्ठित कर दिया था। शहरों के पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोग हों या लेखक, प्राध्यापक, समाज-सुधारक, राजनेता सबका ध्यान लोकगीतों की तरफ गया, जिनमें धरती का हृदय बोलता है और लाखों लोगों के सुख-दुख की अकथ कहानियाँ और सीधी-सच्ची भावनाएँ छिपी हैं। यही वजह है कि बीसवीं सदी के साहित्यिक, सामाजिक या राजनीतिक फलक पर मौजूद शायद ही कोई बड़ी शख्सियत हो, जिससे सत्यार्थी जी की मुलाकात न हुई हो। पं. मदनमोहन मालवीय, राजगोपालाचार्य, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, के.एम. मुंशी, शरत, प्रेमचंद, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, कलागुरु अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु, रामकिंकर, राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय सबसे उनकी अंतरंग मुलाकातें हुईं। और मंटो, बेदी, कृश्न चंदर तो उनके समकालीन ही थे जिनके साथ उनकी कहानियाँ उर्दू के रिसालों में बड़ी धूम से छपती थीं।
यों लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी के समूचे जीवन पर नजर डालें, तो उनके जीवन के बस, दो ही बीज शब्द थे, ‘यात्रा’ और ‘लिखना’। कोई पचानबे वर्ष लंबे उनके जीवन के पूर्वार्ध में यात्रा, यात्रा और यात्रा समाई हुई थी, तो उत्तरार्ध में लिखना, लिखना और निरंतर लिखते-लिखते ही जीना, यही उनके जीवन का मूल मंत्र बन चुका था। हालाँकि चाहे उनका एक अलग राह लेता बचपन हो या तरुणाई की अनथक यात्राएँ और बाद के दौर का खुद में डूबा-डूबा सा लेखन, रचनात्मकता की एक निरंतर कशिश उन्हें हमेशा खींचती और लुभाती रही। और इसी ने लोकगीतों पर ‘धरती गाती है’, ‘बेला फूले आधी रात’, ‘बाजत आवे ढोल’ और ‘धीरे बहो गंगा’ जैसी कालजयी कृतियाँ देने के साथ-साथ सत्यार्थी जी को सर्जनात्मक क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया। उनकी कहानियाँ हों, कविताएँ, लेख, संस्मरण, रेखाचित्र या उपन्यास, सबमें धरती और खानाबदोशी की गंध बसी है जो उन्हें भीड़ में एक अलग पहचान देती है।
और फिर सत्यार्थी जी की बातों में इतना सम्मोहन था कि उनसे मिलने को मन ललकता था। बार-बार मिलना होता था और देर तक मिलने पर बातों और किस्सों की मीठी सुवास! सत्यार्थी जी कभी सीधी लीक नहीं चले, हमेशा मन की मौज में जिए। इसीलिए उनसे अकसर होती बातचीत और ‘रचनात्मक संवाद’ भी इतने आत्मीय और ताजगी से लबरेज होते थे कि उन्हें भुला पाना कठिन है। मुझे याद है, उम्र के आखिरी चरण में भी जब पूछा गया कि क्या वे अपनी सृजन-यात्रा से संतुष्ट हैं या अभी कुछ और लिखना बाकी है, तो उनका अथक उत्साह और निश्छलता से भरा जवाब था, ‘‘देखिए, चैन तो मुझ बेचैन आदमी को कभी है ही नहीं और शायद मरकर भी नहीं होगा। मैं तो बस लिखते...लिखते...लिखते ही जाना चाहता हूँ। आजकल अपनी आत्मकथा का चौथा और आखिरी खंड ‘अमृतयान’ पूरा करने में लगा हूँ।’’
‘अमृतयान’ वे पूरा नहीं कर सके, पर उनकी अधूरी पांडुलिपियों की पुकार में बहुत कुछ ऐसा है, जिससे समझा जा सकता है कि उनकी वह बेचैनी क्या कुछ लिख पाने की बेचैनी थी। और अगर ‘अमृतयान’ पूरा होता तो उसके जरिए कौन सी कही-अनकही कहानियाँ सामने आ सकती थीं? उनकी अधूरी पांडुलिपियों में अमृतयान का पूरा नक्शा मौजूद है, जिससे उनकी आत्मकथा को देर-सबेर एक व्यवस्थित शक्ल दी जा सकती है।
फिर याद आती हैं, उनसे हुई बातें, अनवरत बातें, जिनमें पूरी एक सदी का जीवंत इतिहास छिपा है। उनसे मिलकर बातें करते हुए लगता था, मानो हम इतिहास के चक्करदार मोड़ों और बड़े गुंबदों के नीचे जा पहुँचे हैं, जहाँ हर क्षण कुछ न कुछ नया और विस्मयकारी घट रहा है। हम उस दौर के साहित्य, संगीत, कला, संस्कृति और फिल्म-जगत ही नहीं, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों की बड़ी से बड़ी शख्सियतों के रूबरू खड़े, उनकी बातें सुन रहे हैं। और होते-होते किसी जादू-मंतर की तरह खुद हम भी उस दौर का एक अनिवार्य हिस्सा हो जाते थे, जिसमें वह समय अपनी समूची हलचल और धड़कनों के साथ हमारे भीतर बहने लगता था।
यों सत्यार्थी जी जब-जब मिलते, तो बातें तो होती ही थीं। बातें, बातें और अंतहीन बातें जिनमें आज के समय के साथ-साथ पुरानी यादों का एक पूरा सैलाब नजर आता। मैं उनमें बहता, तो बहता ही जाता था। पर मन था कि थोड़ी व्यवस्थित बातचीत हो जिससे उनकी पूरी जीवन-कथा की झाँकी सामने आए। और सौभाग्य से उसका अवसर भी आ गया। सत्यार्थी जी जब नवीं दहाई को छू रहे थे, उनसे कई दफा लंबी बातचीत का मौका मिला। कभी-कभी तो यह बातचीत दिन भर भी चलती। कहीं न कहीं लोभ यह भी था कि पंख फडफ़ड़ाकर उड़ती चिडिय़ों सरीखी उनकी स्मृतियाँ कहीं एक सिलसिले में बँध जाएँ, ताकि उनके जीवन-संघर्षों का एक सुविव्यस्त कथा सामने आए।
सत्यार्थी जी जैसे कद्दावर शख्सियत वाले बीहड़ और औघड़ शख्स के आगे बार-बार मेरी कोशिश विफल होती। लेकिन अंतत: कई टेढ़े-मेढ़े घुमावों के बावजूद एक लंबी बातचीत हुई, जो एक पुस्तक के रूप में सामने आई। सत्यार्थी जी की जीवन-कथा लिखने बैठा, तो उन्हीं में से एक कुछ बातें फिर-फिर यादों के दरिया में से उझक-उझककर सामने आ गईं। आती ही गईं। एक अनवरत सिलसिला।
आज लगता है, जादू के परों पर सवार थे वे दिन। फरीदाबाद से सत्यार्थी जी के निवास, दिल्ली की नई रोहतक रोड तक का करीब-करीब दो-ढाई घंटे का सफर। घर से सुबह-सुबह निकलता था, फिर भी मन में हल्की-सी धुकुर-पुकुर। कहीं ऐसा तो नहीं कि घर से निकल गए हों किसी काम से? या फिर स्वास्थ्य...? मैं मन ही मन उनके जीवट और उनकी जीवनी शक्ति को प्रणाम करता। पर कई बार मन में एक हलका भय भी कौंधता, कहीं किसी क्षण डाल से टपक ही गए तो? कई बार अजीब-सा भ्रम होता। अभी हैं, अभी नहीं! यों सत्यार्थी जी के होने में जिस एक और व्यक्ति का जीवट जुड़ा हआ है, सत्यार्थी से भी बड़ा जीवट—वे थीं लोकमाता। सत्यार्थी जी की पत्नी, जिन्होंने खुद को तिल-तिल गलाकर भी, परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ खुद ओढ़कर अपने इस दाढ़ी वाले मस्त कलंदर को मुक्त और बेफिक्र रखा, जी भरकर घूमने, यात्राएँ करने और लिखने के लिए।
अकसर मैं वहाँ जाता तो घर का दरवाजा हमेशा की तरह खुला होता। जैसे कह रहा हो, यह एक ऐसे घर का दरवाजा है जहाँ बगैर खटखटाए कोई भी भीतर जा सकता है। मैं चुपके से भीतर जाकर झाँकता। देखता, सत्यार्थी जी हैं, अपनी उसी आरामकुर्सी पर समाधि लगाए हुए लिख रहे हैं। पास ही रखा टीवी अपनी धुन में कुछ बोलता जा रहा है और उससे एकदम बेपरवाह सत्यार्थी अपनी धुन में कुछ लिखते जा रहे हैं। हाँ, एक बात जरूर है। पहले अकसर सत्यार्थी के आसपास रेडियो चल रहा होता था और बाद के दिनों में टीवी जिसे सत्यार्थी जी देखते कम, शायद सुनते ज्यादा थे। रेडियो की ही तरह। हाँ, उन्हें लेकिन ऐसे किसी ‘दोस्त’ या एकांत के साथी की दरकार जरूर थी। कोई आवाज,कोई ध्वनि, संगीत...कानों में कुछ पड़ता रहना चाहिए जरूर। बस, सत्यार्थी जी की इससे समाधि लग जाती थी।
याद पड़ता है, मेरे चुपचाप भीतर पहुँचने पर भी अकसर सत्यार्थी जी की लिखने की समाधि टूटती नहीं थी। वे हलका-सा चौंककर इधर-उधर देखते थे। फिर धीरे-से अपने काम में लग जाते थे। और मैं दुविधा में ठिठका सा वहीं खड़ा रहता, जैसे तय न कर पा रहा होऊँ कि क्या मैं आगे बढ़ूँ या उन्हें यों ही काम करते देखता रहूँ कुछ देर और...? आगे कुछ सोचूँ, इससे पहले ही उस सफेद-सी छाया के प्रभाव में आ जाता, जो धीरे-धीरे डगमगाते कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ रही होती। लोकमाता! सत्यार्थी जी की पत्नी, जिन्हें बाद में चलकर सत्यार्थी जी इसी नाम से पुकारने लगे थे।
‘मनु...।’ माता जी के चेहरे पर एक प्रसन्नता मिश्रित चमक उभरती। वही काँपती हुई, लरजती आवाज। मैं उनके पैरों की ओर बढ़ता, तो वे प्यार से मेरा सिर थपथपा देतीं। और फिर सत्यार्थी जी भी कागज-पत्तर एक ओर रख, प्रसन्नता से हँसकर मेरा हाथ थाम लेते।
थोड़ी देर में एक छोटी-सी, मामूली सी ट्रे में जिसका लाल रंग कभी का बुझ चुका था, वे दो कप चाय लेकर आतीं और एक प्लेट में थोड़े से बिस्कुट। कई बार उन प्यालों की ऊपर की किनोर टूटी हुई लगती। लेकिन इससे न उन बातों का रस कम होता और न लोक यायावर से मिलने का आनंद, जिनमें न जाने कौन-कौन सी यादों के काफिले आकर शामिल हो जाते और एक अव्याख्येय सुख की नदी बहने लगती। और यों बातें, बातें, अनवरत बातें। बातों का यह अजस्र सिलसिला कब शुरू हुआ, कुछ पता ही नहीं चलता था। उनमें से बहुत सी बातें और यादें इस पुस्तक को लिखने में मददगार बन गईं।
फिर आकाशवाणी के अभिलेखागार के लिए उनका एक लंबा और अनौपचारिक इंटरव्यू करने का सुयोग मिला, जो लगातार कई दिनों तक चला। ठीक वैसा ही जैसे अज्ञेय, बनारसीदास चतुर्वेदी आदि के लंबे इंटरव्यू वहाँ हो चुके थे और वे पुस्तकाकार भी सामने आए। सत्यार्थी जी को जब इस योजना के बारे में बताया गया, तो उन्होंने बड़े मुक्त भाव से उन्होंने मुझे आश्वस्त किया एक पारिवारिक बुजुर्ग की तरह, ‘‘जब भी आपका जी चाहे, रख लीजिए।’’
और सच में वह एक यादगार बातचीत रही, जिससे उनकी औघड़ जिंदगी की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों के बारे में बहुत सी नई और यादगार बातें पता चलीं। बातचीत में वाकई उनका सुर बँध गया। हाँ, बीच-बीच में कुछ नाम सत्यार्थी जी जरूर भूलने लगे थे। कभी-कभी कोई किस्सा सुनाने लगते, तो आसपास की गलियों, कूचों, खड्डों-खाइयों में इस कदर बिला जाते हैं कि लगता है, असली बात तो छूट ही गई। पर नहीं, इधर-उधर की सत्रह गलियों को पार करने के बाद के शुरुआती और आखिरी छोर को जब वह उस्तादाना कौशल से जोड़ रहे होते, तब समझ में आ जाता कि यह बूढ़ा जादूगर कैसी हस्ती है। फिर सत्यार्थी जी के समूचे सृजनात्मक लेखन, खासकर कहानियों और संस्मरणों में उनकी आत्मकथा और गुजरे वक्त के यहाँ-वहाँ बिखरे हुए सूत्र मौजूद हैं। उनसे भी बहुत मदद मिली। सत्यार्थी जी की आत्मकथा भी बहुत सहायक हुई। भले ही आत्मकथा के बाद के खंडों में अमूर्तन और बिखराव अधिक हो, पर उनकी जीवन-कथा के बहुत जरूरी वृत्तांत वहाँ संकेतों और सूत्र-रूप में हैं।
यों भरा-पूरा जीवन जीकर गए लोकयात्री सत्यार्थी सच में एक इतिहास-पुरुष हैं। कोई पचानबे वर्ष बगैर किसी राग-द्वेष के जी गया एक लोक-पुरुष, जिसने अनंत यात्राएँ की हैं और और लोक साहित्य तथा उसकी विरासत को आगे आने वाली पीढिय़ों के लिए सहेजकर रखा। साथ ही उनका विपुल सृजनात्मक लेखन भी मानो पुनर्मूल्यांकन की चुनौती के साथ हमारे सामने मौजूद है। अपने जीवन-काल में ही जीवित किंवदंती बन चुके देवेंद्र सत्यार्थी और उनके सदाबहार व्यक्तित्व के कुछ अक्स इस पुस्तक के जरिए पाठकों तक पहुँच सकें तो मुझे लगेगा कि यह श्रम सार्थक हो गया।
Thursday, May 26, 2011
हमने बाबा को देखा है
हमने बाबा को देखा है
प्रकाश मनु
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
कभी चमकती सी आँखों से
गुपचुप कुछ कहते, बतियाते,
कभी खीजते, कभी झिड़कते
कभी तुनककर गुस्सा खाते।
कभी घूरकर मोह-प्यार से
घनी उदासी में छिप जाते,
कभी जरा सी किसी बात पर
टप-टप-टप आँसू टपकाते।
कभी रीझकर चुम्मी लेते
कभी फुदककर आगे आते,
घूम-घूमकर नाच-नाचकर
उछल-उछलकर कविता गाते,
लाठी तक को संग नचाते
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
जर्जर सी इक कृश काया वह
लटपट बातें, बिखरी दाढ़ी,
ठेठ किसानी उन बातों में
मिट्टी की है खुशबू गाढ़ी।
ठेठ किसानी उन किस्सों में
नाच रहीं कुछ अटपट यादें,
कालिदास, जयदेव वहाँ हैं
विद्यापति की विलासित रातें।
एक शरारत सी है जैसे
उस बुड्ढे की भ्रमित हँसी में,
कुछ ठसका, कुछ नाटक भी है
उस बुड्ढे की चकित हँसी में।
सोचो उस बुड्ढे के संग-संग,
उसकी उन घुच्ची आँखों से,
हमने कितना कुछ देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
कहते हैं, अब चले गए हैं
क्या सचमुच ही चले गए वे?
जा सकते हैं छोड़ कभी वे
सादतपुर की इन गलियों को,
सादतपुर की लटपट ममता
शाक-पात, फूलों-फलियों को?
तो फिर ठाट बिछा है जो यह
त्यागी के सादा चित्रों का,
और कृषक की गजलें, या फिर
दर्पण से बढिय़ा मित्रों का।
विष्णुचंद्र शर्मा जी में जो
कविताई का तंज छिपा है,
युव पीढ़ी की बेचैनी में
जो गुस्सा और रंज छिपा है।
वह सब क्या है, छलक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में,
मृगछौनों सा भटक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में।
यह तो सचमुच छंद तुम्हारा
गुस्से वाली चाल तुम्हारी,
यही प्यार की अमिट कलाएँ
बन जाती थीं ढाल तुम्हारी।
समझ गए हम बाबा, इनमें
एक मीठी ललकार छिपी है,
बेसुध खुद में, भीत जनों की
इक तीखी फटकार छिपी है!
जो भी हो, सच तो इतना है
(बात बढ़ाएँ क्यों हम अपनी!)
सादतपुर के घर-आँगन में
सादतपुर की धूप-हवा में,
सादतपुर के मृदु पानी में
सादतपुर की गुड़धानी में,
सादतपुर के चूल्हे-चक्की
और उदास कुतिया कानी में—
हमने बाबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
करते हैं अब यही प्रतिज्ञा
भूल नहीं जाएँगे बाबा,
तुमसे मिलने सादतपुर में
हम फिर-फिर आएँगे बाबा,
जो हमसे छूटे हैं, वे स्वर
हम फिर-फिर गाएँगे बाबा।
स्मृतियों में उमड़-घुमड़कर
आएँगी ही मीठी बातें,
फिर मन को ताजा कर देंगी
बड़े प्यार में सीझी बातें!
कई युगों के किस्से वे सब
राहुल के, कोसल्यायन के,
सत्यार्थी के संग बिताए
लाहौरी वे दिन पावन-से।
बड़ी पुरानी उन बातों को
छेड़ेंगे हम, दुहराएँगे,
दुख हमारे, जख्म हमारे
उन सबमें हँस, खिल जाएँगे।
तब मन ही मन यही कहेंगे
उनसे जो हैं खड़े परिधि पर,
तुम क्या जानो सादतपुर में
हमने कितना-कुछ देखा है!
काव्य-कला की धूम-धाम का
एक अनोखा युग देखा है।
कविताई के, और क्रांति के
मक्का-काबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
हम बाबा के शिष्य लाड़ले
हम बाबा के खूब दुलारे,
बाबा के नाती-पोते हम
बाबा की आँखों के तारे।
हम बाबा की पुष्पित खेती
हममें ही वे खिलते-मिलते,
हमसे लड़ते और रीझते
हममें ही हँस-हँसकर घुलते।
हमको वे जो सिखा गए हैं
कविताई के मंत्र अनोखे,
हमको वे जो दिखा गए हैं
पूँजीपति सेठों के धोखे।
और धार देकर उनको अब
कविताई में हम लाएँगे,
दुश्मन के जो दुर्ग हिला दे
ऐसी लपटें बन जाएँगे।
खिंची हुई उनसे हम तक ही
लाल अग्नि की सी रेखा है!
हमने बाबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
Wednesday, May 25, 2011
रमेश तैलंग के बालगीतों का शरारती अंदाज
रमेश तैलंग की बात चलेगी, तो थोड़ा पीछे जाना होगा। थोड़ा नहीं, काफी।...ओह, होते-होते कोई बाईस-तेईस बरस तो हो ही गए। या शायद ज्यादा। और यह शख्स जो कि कवियों का कवि है और एक सदाबहार इनसान, नहीं बदला। हरगिज नहीं बदला। पहली बार जैसा देखा था, हूबहू आज भी वैसा ही।
बात मेरे खयाल से सन 88 की रही होगी। नंदन में आए हुए मुझे कोई दो बरस हो गए थे और बाल साहित्य में खूब डुबकियाँ लगाने लगा था। भारती जी ने नंदन के लिएए कविताएँ चुनने का जिम्मा मुझे दिया था। जो मेरी पसंद की कविताएं होतीं, मैं प्रकाशनार्थ आई ढेर सारी कविताओं में से चुनकर उन्हें दिखा देता। आम तौर से उनमें से ही वे कविताएँ फाइनल कर लेते और फिर मैं कविता का पेज बनवाने की तैयारियों में लग जाता। इस बहाने हर महीने ढेरों कविताएँ पढ़ने को मिलतीं। अच्छी भी, साधारण भी। फिर नंदन के पुराने अंकों को देखा तो एक से एक दिग्गज लेखक वहाँ मौजूद थे, जिनमें दिनकर, प्रभाकर माचवे, भवानी भाई, वीरेंद्र मिश्र, रामावतार त्यागी, सेवक जी, माहेश्वरी जी...और यहाँ तक कि फणीश्वरनाथ रेणु, ममता कालिया और कृष्णा सोबती की बाल कविताएँ। पहली बार जाना कि बाल कविताओं के परिदृश्य में कितना कुछ समाया हुआ है। पढ़कर लगभग नशे की हालत थी। खुद भी लिखता था और मन में कहीं न कहीं यह सपना भी जाग ररहा था कि बाल कविताओँ में कितना कुछ काम हुआ हहै, यह लोगों को बताना चाहिए।
उन दिनों देवेंद्र भी बहुत अच्छी बाल कविताएँ लिख रहे थे। मैं उनकी बाल कहानियों का आनंद ले चुका था। बाल कविताओं के अँदाज से भी धीरे-धीरे परच ररहा था। तभी एक दिन उन्होंने एक नए और अपरिचित शख्स की कुछ बाल कविताएं दिखाईं और कहा, जरा देखिए मनु जी, ये कविताएँ कैसी हैं। ये शख्स भी हिंदुसस्तान टाइम्स में हैं--विज्ञापन विभाग में।
मैंने सोचा था, फुर्सत में पढ़ूँगा कविताएँ। हाँ एक बानगी ले लूँ। पर शुरू में ही अले, छुबह हो गई, टिन्नी जी और ढपलू जी रोए आँ...ऊँ सरीखी कविताएँ पढ़कर मैं तो जैसे उछल पड़ा--अरे वाह, ये होती हैं कविताएँ तो। बड़े दिनों बाद ऐसी कविताएँ पढ़ीं कि मन झूम उठा। लगा, किसी तरह ईश्वर बच्चा बना दे, ताकि इन कविताओँ का पूरा आनंद ल सकूँ।
बाद में देवेंद्र जी ने पूछा कि मनु जी, आपने पढ़ लीं कविताएं, कैसी लगीं। मैंने कहा, देवेंद्र जी, आप पूछ रहे हैं, कैसी लगीं। जबकि मैं तो इन्हें पढ़कर सच्ची-मुच्ची पागल हो गया, जैसे जमीन पर ही नहीं हूँ। अद्भुत है यह शख्स। है कहाँ, जल्दी से मिलवाइए। जरा अपनी छाती से लगा लूँ, नहीं तो चैन नहीं पड़ेगा मुझे।
तब से तो नदी में बहुत पानी बह गया। और तैलंग की कविताएँ ही नहीं, कविता कहने का हुनर भी खूब निखरता गया, निखरता ही गया। आाज कोई पूछता है कि मनु जी, अच्छी कविताएँ कैसी होती हैं...तो पुराने कवियों में तो शेरजंग गर्ग, दामोदर अग्रवाल, सेवक जी सरीखे बहुत नाम गिनाए जा सकते हैं, पर इधर लिख ररहे किसी उस्ताद कवि का नाम लेना हो, तो मैं रमेश तैलंग का नाम लेना ही पसंद करता हूँ। कोई मुझसे कहता है, मनु जी, आपकी बच्चों की कविताएँ देखीं। अच्छी लगीं। तो मैं कहता हूँ अभी आपने रमेश तैलंग को नहीं पढ़ा। उन्हें पढ़ा होतता, तो ऐसा न कहते। बाल कविताएँ तो तैलंग लिखते हैं और हम सब तो बस उन्हें स्पृहा से निहारते भर हैं कि ओहो, ऐसी जानदार और शानदार बाल कविताएँ जिनमें बच्चे का शरारती मन और उसकी संवेदना छलक रही होती है, भला लिखी कैसे जाती हैं।
रमेश तैलंग और देवेंद्र के साथ मेरी चुनी हुई बाल कविताओँ का संग्रह हिंदी के नए बालगीत निकला था, जिसमें सबसे अधिक सराही गई थीं तैलंग की कविताएँ। अभी कुछ अरसा पहले सरला प्रकाशन से बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक माला निकाली, तो तैलंग को तो उसमें होना ही था। उस संग्रह का नाम है--टिन्नी जी, ओ टिन्नी जी। उसमें से तैलंग की निक्का पैसा कविता यहाँ दे रहा हूँ। लीजिए आप भी इसका आनंद लीजिए--
निक्का पैसा
निक्का पैसा कहाँ चला,
कहाँ चला जी, कहाँ चला।
पहले रहा हथेली पर
फिर जा गुड़ की भेली पर
चिपक गया चिपकू बनकर
यहाँ चला न वहाँ चला।
धूप लगी, गुड़ पिघल गया
निक्का पैसा निकल गया
कहाँ चलूँ की झंझट में
गिरा सेठ की गुल्लक में
यहाँ चला न वहाँ चला।
किसी तरह मौका पाकर
गुल्लक से निकला बाहर,
खुली सड़क थी इधर-उधर
लुढ़क चला सर-सर, सर-सर।
यहाँ चला फिर वहाँ चला
मौज उड़ाई, जहाँ चला।
(सरला प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित टिन्नी जी, ओ टिन्नी जी से साभार। बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक-माला। चयन-संपादन - प्रकाश मनु)
देवेंद्रकुमार की बाल कविताओं का अंदाज
देवेंद्रकुमार बच्चों के लिए क्या नायाब कहानियाँ और उपन्यास लिखते हैं और खूब लिखते हैं। मैं 31 जनवरी, 1986 को नंदन में जाइन करने के लिए पहुँचा, तब पहले दिन ही देवेंद्र के जादू को महसूस किया था और फिर दिनोंदिन उसका असर बढ़ता ही गया। नंदन में हम लोग बच्चों के लिए कहानियाँ लिखते समय पहले आपस में खूब अच्छे से डिस्कस कर लिया करते थे। तब मैंने देखा कि कहानी कैसे देवेंद्र के रोम-रोम में बसी हुई है और डिस्कशन के दौरान वे कहानी की किसी ऐसी दिशा की ओर संकेत कर देते कि कहानी लिखते समय वह कुछ की कुछ हो जाती और उसमें नई चमक, तराश और ताजगी आ जाती। बाद में मैं सोचता, अरे, कहानी की यह दिशा तो हमें अज्ञात ही थी। देवेंद्र जी ने किस उस्तादी से हमारा ध्यान उधर खींचा, जो कहानी की बनी-बनाई लीक से एकदम अलग थी और कहानी में जान आ गई।
देवेंद्र का यही जादू और उस्तादी कहानियों के संपादन के समय देखने को मिलती और खुद उनकी कहानियों और उपन्यासों में भी, जिनमें वे बात कहते नहीं हैं, बस चुपके से सरका देते हैं और उस चुपके से कह दी गई बात का असर इतना गहरा होता है कि तमाम-तमाम लीक पर चलने वाली कहानियाँ उसके आगे फीकी और निस्तेज लगती हैं।
पर यहाँ मैं देवेंद्र की कहानियों और उपन्यासों के बारे में ज्यादा नहीं कह रहा। उन पर कुछ लिखने के लिए तो लंबा स्पेस और फुर्सत चाहिए। अलबत्ता, बातों-बातों में एक दिन देवेंद्र की बच्चों के लिए लिखी गई कविताओं का जिक्र चला, और उन्हें पढ़ा तो लगा कि देवेंद्रकुमार की बाल कविताओं का अपना अंदाज है। आगे चलकर हिंदी के नए बालगीत संग्रह निकला जिसमें रमेश तैलंग, देवेंद्र और मेरी चुनी हुई बाल कविताएं हैं। सरला प्रकाशन ने मेरे सुझाव पर बच्चों के अच्छे कवियों की चुनिंदा बाल कविताओं के संचयन निकाले, तो उनमें भी देवेंद्र शामिल थे। उनकी पुस्तक का नाम है, यह है हँसने का स्कूल।
तो मित्रो, देवेंद्र की कविता हँसने का स्कूल पढ़िए और खिल-खिल हँसिए--
यह है हँसने का स्कूल
जल्दी आकर नाम लिखाओ
पहले हँसकर जरा दिखाओ,
बच्चे जाते रोना भूल--
यह है हँसने का स्कूल।
पहले सीखे खिल-खिल हँसना
बढ़कर गले सभी से मिलना,
सारे यहीं खिलेंगे फूल--
यह है हँसने का स्कूल।
झगड़ा-झंझट और उदासी
इनको तो हम देंगे फाँसी,
हँसी-खुशी से झूसम-झूल--
यह है हँसने का स्कूल।
(सरला प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित यह है हँसने का स्कूल पुस्तक से साभार। बच्चों के प्रय कवि पुस्तक-माला। संपादकः प्रकाश मनु)
Monday, May 23, 2011
डा. शेरजंग गर्ग के नटखट शिशुगीत
डा. शेरजंग गर्ग मुझ इकसठ बरस के बाल-मना लेखक के पसंदीदा कवि और गुरु भी हैं। खासकर बढ़िया और नायाब शिशुगीत कैसे होते हैं या क्या हो सकते हैं, यह डा. शेरजंग गर्ग से सीखा जा सकता है। और नए ही नहीं, बरसों से लिख रहे पुराने और जमे हुए लेखक भी उऩसे यह गुर सीख सकते हैं--अगर वाकई वे जमकर कुछ करना चाहते हैं तो।
अलबत्ता हो-हो हँसते मि. जोकर में शामिल डा. गर्ग के बड़े ही नटखट और कभी न भूलने वाले शिशुगीतों में से कुछ बढ़िया शिशुगीत यहाँ पढ़िए--
दादी अम्माँ
हलवा खाने वाली अम्माँ,
लोरी गाने वाली अम्माँ।
मुझे सुनातीं रोज कहानी,
नानी की हैं मित्र पुानी।
पापा की हैं आधी अम्माँ,
मेरी पूरी दादी अम्माँ।
राजा-रानी
रामनगर से राजा आए
श्यामनगर से रानी,
रानी रोटी सेंक रही है
राजा भरते पानी।
गुड़िया की शादी
लड्डू, बरफी जमकर खाओ
ढोल मँजीरे खूब बजाओ।
है नन्ही गुड़िया की शादी
नहीं किसी बुढ़़िया की शादी।
चूहा-बिल्ली
बिल्ली-चूहा चूहा-बिल्ली,
साथ-साथ जब पहुँचे दिल्ली।
घूमे लाल किले तक पहले,
फिर इंडिया गेट तक टहले।
घूमा करते बने-ठने से,
इसी तरह वे दोस्त बने से।
चिड़िया
फुदक-फुदककर नाची चिड़िया,
चहल-पहल की चाची चिड़िया।
लाई खबर सुबह की चिड़िया,
बात-बात में चहकी चिड़िया।
(सरला प्रकाशन, दिल्ली से छपी किताब हो-हो हँसते मि. जोकर से सभार।
बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक-माला। चयन-संपादनः प्रकाश मनु)
कन्हैयालाल मत्त की अद्भुत बाल कविताएँ
मत्त जी की उन कविताओं की खुशबू अब भी मन में बसी हुई है। बाद में तो ऩंदन के कवि एकः रंग अनेक में उनकी कविताएँ छापने की योजना बनी, तो उन्हें और भी जमकर पढ़ने का मौका मिला। उनसे मिलने का भी प्यारा सुयोग मुझे मिला। और जब-जब उनसे मिला, हर बार यही लगा, ईश्वर ने उन्हें एक से एक मोहक बाल कविताएँ लिखने के लिए धरती पर भेजा है। उनसे मिलने पर अच्छी बाल कविताओं की चर्चा हुई तो उन्होंने एक बात कही थी जो मैं आज तक नहीं भूल पाया। उनका कहना था कि अच्छी बाल कविता वह है, जिसे पढ़कर बच्चे के मन की कली खिल जाए।
आज भी मुझे लगता है, बाल कविता, बल्कि समूचे बाल साहित्य की इससे सटीक और सार्थक परिभाषा कोई और हो नहीं सकती।
अलबत्ता, यहाँ बाल साहित्य से जुड़े मित्रों और बाल पाठकों के लिए मत्त जी की यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ--
चिड़िया रानी, किधर चली
चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
किधर चली।
मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
कुज-गली।
चिड़िया रानी,
चिड़िया रानी,
पर निकले।
मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
नीम के तले।
चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
टी टुट-टुट।
मुन्ने राजा
मुन्ने राजा
चाय-बिस्कुट।
चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
टा-टा-टा।
मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
सैर-सपाटा।
(सरला प्रकाशन, दिल्ली से छपी पुस्तक जमा रंग का मेला से साभार। बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक-माला।
चयन-संपादनः प्रकाश मनु)
Saturday, May 14, 2011
भारती जी की याद
अलबत्ता, वह टिप्पणी हाजिर है--
प्रिय नागेश, भारती जी की ज्यादा सुंदर कविता तुमने नहीं चुनी। भारती जी ने कुछ बड़ी बेजोड़ कविताएँ लिखी हैं। एक था राजा, एक थी रानी, दोनों भरते थे पानी...भारती जी की बड़ी सुंदर कविता है। ऐसे ही पगलो मौसी सरीखे कई बढ़िया शिशुगीत हैं। आगे कभी उन्हें भी दें। भारती जी के फूलों के गीत ज्यादा स्वाभाविक मुझे नहीं लगते। हालाँकि वे जब लिखे गए, तब का मैं गवाह हूँ। अकसर वे सुनाते थे, करीब-करीब रोज ही। उनका पैट वाक्य था--आचार्य, बैठो। बाकी काम इस वक्त छोड़ दो, यह कविता देखो। जब कोई साहित्यिक विमर्श करना होता था, तब उनका यह हलका-फुलका अनौपचारिक अंदाज होता था। ...तो इन कविताओं पर भी उनसे चर्चा होती थी। वे खुलकर सुझाव माँगते थे, कुछ पर अमल भी करते थे। अलबत्ता कविता पढ़कर भारती जी की याद आ गई। मेरी आँखें नम हैं। उनसे कुछ असहमतियाँ थीं, पर उनमें बहुत कुछ ऐसा था जिसे मैं उम्र भर याद करता रहूँगा। और सच यह भी है कि वे मुझे नंदन में आग्रहपूर्वक न लाए होते, तो आज बाल साहित्य से मेरा ऐसा रिश्ता न होता। उनसे मेरी असहमतियाँ थीं, पर वे बेशक मेरे गुरु थे जिनके लिए आज भी मेरा सिर आदर से झुकता है। सस्नेह, प्र.म.
Thursday, May 12, 2011
निरंकारदेव सेवक के अनूठे शिशुगीत
सेवक जी से मिलने का मुझे एक ही मौका मिला, जब वे राष्ट्रीय बाल भवन, दिल्ली की गोष्ठी में शामिल होने आए थे और नंदन में भारती जी से मिलने भी पहुँचे। भारती जी ने मुझे भी अपने कमरे में ही बुला लिया और बाल साहित्य को लेकर उनसे देर तर बातें होती रहीं। यहाँ तक कि दफ्तर बंद होने का समय हो गया, तब भी हम लोग बैठे बातें करते रहे। बाद में भारती जी ने मुझसे आग्रह किया कि मैं सेवक जी को बाल भवन छोड़ता हुआ घर जाऊँ। तो रास्ते में और बाल भवन के प्रवेश-द्वार पर भी काफी देर तक खड़े-खड़े उनसे बातें होती रहीं। वे सीधे अपनी बात कहते थे, बगैर लाग-लपेट के और बगैर किसी लल्लो-चप्पो के। पर यही उनकी साफगोई और दृढ़ता ही उन्हें निरंकारदेव सेवक बनाती थी।
अवबत्ता सेवक जी के संग्रह चिड़िया रानी से यहाँ कुछ छोटे-छोटे सुंदर शिशुगीत मैं दे रहा हूँ--
1.
मै अपने घर से निकली,
तभी एक पीली तितली।
पीछे से आई उड़कर,
बैठ गई मेरे सिर पर।
तितली रानी बहुत भली,
मैं क्या कोई फूल-कली।
2.
चींटी भूल गई रस्ता,
आ जा तू मेरे घर आ।
खाने को दूँगा रोटी,
बेसन की मोटी-मोटी।
पानी दूँगा पीने को,
फिर खेलेंगे हम दोनों।
3.
एक शहर है चिकमंगलूर,
रहते वहाँ बहुत लंगूर।
एक बार जब मियाँ गफूर,
खाने गए वहाँ अंगूर।
बिल्ली एक निकल आई,
वह तो थी उनकी ताई।
टाँग पकड़कर पटकी दी,
जय हो बिल्ली ताई की।
(निरंकारदेव सेवक का संग्रह चिड़िया रानी ईशान प्रकाशन, नई दिल्ली से छपा है।)
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की अद्भुत बाल कविता
सर्वेश्वर की एक से एक दिलचस्प कविताएं हैं जिनमें छिपे हुए विनोद भाव का क्या कहना। नन्हा ध्रुवतारा संग्रह में सर्वेश्वर की एक बाल कविता है--मेले में लल्ला। इसे पढ़ते हुए बरबस हँसी आती है और जब-जब मैंने इसे पढ़ा मेरे भीतर बात कौंधी कि कहीं यह योगेंद्रकुमार लल्ला पर तो नहीं लिखी गई, जो धर्मयुग छोड़कर बालपत्रिका मेला निकालने के लिए कलकत्ता गए थे।
अलबत्ता पढ़ें सर्वेश्वर की यह अनूठी कविता और मन ही मन इसमें छिपे आनंद-भाव को सराहिए--
कलकत्ते में खो गए लल्ला,
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला।
घर में बैठे थे चुपचाप,
करते रामनाम का जाप।
भागे सुन मेले का हल्ला
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला।
कलकत्ते में खो गए लल्ला।
(सर्वेश्वर के संग्रह नन्हा ध्रुवतारा की कविता मेले में लल्ला का एक अंश। पुस्तक के प्रकाशक हैं राधाकृष्ण प्रकाशन, न. दि.)
Wednesday, May 11, 2011
दिविक रमेश का बालनाटक बल्लू हाथी का बालघर
दिविक रमेश ने बड़ों के लिए तो लिखा ही है और समकालीन कवियों में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है, पर बच्चों के लिए भी उन्होंने बड़ी सुंदर कविताएँ और कहानियाँ लिखी हैं। बल्लू हाथी का बालघर उनका बच्चों के लिए लिखा गया पहला नाटक है। और नाटक भी खासा खिलंदड़ा। हालाँकि उससे बच्चों को बढ़िया सीख भी मिलतती है, पर वह भी खेल के आनंद के साथ। यानी बच्चों को खेल-खेल में मगन करता हुआ नाटक।
नाटक में जिस जंगल की कथा है, वह खासा प्रजातांत्रिक जंगल है जिसमें सारे जानवर सभा में इकट्ठे होकर फैसले करते हैं और वहां शेर से लेकर खरगोश, बल्कि और नन्हे जीवों को भी अपनी बात कहने का पूरा हक है। ऐसे ही एक दिन सभा हो रही थी, तभी एक थका हुआ बूढ़ा हाथी आया और पीछे आकर बैठ गया। सबके पूछने पर उसने बताया कि वह भी इसी जंगल का ही है पर बरसों पहले उसे आदमी पकड़कर ले गए थे और पूरा जीवन वह आदमियों के बीच रहकर उनकी सेवा करता रहा। पर मनुष्यों का जानवरों के प्रति रवैया बेहद तकलीफ देने वाला है। कहकर बल्लू हाथी ने अपने कष्टभरे अनुभव बताए तो सभी को आदमियों पर गुस्सा और बल्लू हाथी पर बड़ा प्यार आया। आदमी किस तरह जंगल और पशुओं पर अत्यातार करके पर्यावरण को नष्ट कर रहा है, इसका छोटे-छोटे नाटकीय संवादों के जरिए वर्णन दिल छू को जाता है।
यहाँ तक तो नाटक में विषाद के गहरे रंग हैं। पर फिर फैसला होता है कि बूढ़े बल्लू हाथी का जंगल के सारे जानवर खयाल रखेंगे और बल्लू हाथी जंगल के सभी जानवरो के बच्चों के लिए एक क्रैच यानी बालघर खोलेगा। सबको कहानियाँ सुनाकर उनका खूब मनोरंजन करेगा और उन्हें कहानियों के जरिए ही जीवन की अच्छी बातें सिखाएगा।
बल्लू हाथी अपनी इस भूमिका को कितने खूबसूरत ढंग से निभाता है और बच्चों से उसकी दोस्ती कैसी नायाब हैं, बच्चे बल्लू हाथी को कितना प्यार करते हैं, यह सब तो शायद नाटक पढकर ही अच्छी तरह जाना जा सकेगा। अलबत्ता दिविक का यह नाटक इतना रस-आऩंदपूर्ण और कसा हुआ है कि यकीन नहीं होता कि यह उनका पहला बालनाटक है। जंगल के अनोखे बालघर का बल्लू हाथी वाकई दिलों में गहरी जगह बना लेने वाला बड़े कद का कैरेक्टर है। उम्मीद है, दिविक के ऐसे ही कुछ और बढ़िया बाल नाटक आगे भी पढ़ने को मिलेंगे।
बल्लू हाथी का बालघर को राजकमल प्रकाशन ने छापा है। 24 पृष्ठों की इस किताब का मूल्य है, 40 रुपए। चित्र चंचल ने बनाए हैं और वे सचमुच आनंदित करने वाले हैं।
एक दाढ़ीः किस्से हजार
जिन दोस्तों ने मेरी आज या कल की शक्ल देखी है, उन्हें शायद कल्पना करने में मुश्किल आए--और अगर यह फोटो अचानक सामने न आ जाता, तो मैं भी करीब-करीब भूल हही चुका था। पर भूली हुई चीजें भी कभी पूरी तरह भूलती नहीं, कभी न भभी, कहीं न कहीं से झाँकने ही लगती हैं।
तो ऐसे ही अचानक मेरी स्मृतियों की खूँटी पर एक दिन लटकती नजर आ गई अपनी दाढ़ी। याद आया, विवाह हुआ था, तब भी बंदा दाढ़ीदार ही था।। उसके बाद भी यह रही काफी समय तक और फिर एक दिन गायब हो गई। पर सच्ची बात तो यह है कि मन से तो कभी न गई यह दाढ़ी। बस, ऊपर से विलुप्त हो गई। उसी का नतीजा शायद यह है कि मझे दाढ़ी वाले लोग हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं। सत्यार्थी जी की दाढ़ीदार उजली हँसी पर तो मैं अपनी सात जिंदगियाँ कुर्बान करने को तैयार रहता था और हूँ।
फिर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की दाढ़ी। बल्कि कहना चाहिए कि उनकी विश्वप्रसिद्ध दाढ़ी। काका कालेलकर को जिन्होंने बगैर दाढ़ी के देखा है, वही जान सकते हैं कि दाढ़ीदार काका ककालेलकर की धज कैसे एकदम अलग थी। यही बात त्रिलोचन के बारे में कही जा सकती है। और दीनबबंधु एंड्रयूज...सबकी शख्सियत में उनकी दाढ़ी का विनम्र योगदान।
मैं बहुत लंबे समय तक दाढ़ीवान तो नहीं बना रह सका, पर दाढ़ी से इश्क या प्यार जरूर रहा। और ये पंक्तियाँ लिखते हुए बहुत याद आ रहे हैं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, जिन्होंने सत्यार्थी जी की दाढ़ी की प्रशंसा में संस्कृत में एक पूरा श्लोक ही रच डाला था। तो दाढ़ी के साथ विनोद भाव भी है, गुस्सा और रोष भी। और भी न जाने क्या-क्या। जब मैं दाढ़ी वाला था, तो मन उन दिनों कैसा हुआ करता था, इसे तो मै लाख बताना चाहूँ, फिर भी नहीं बता सकूँगा।
अलबबत्ता, दाढ़ी पर इस लंबी टीप से तो बेहतर है, मैं वह फोटो ही पेश कर दूँ जो अचानक पिछले दिनों मिला और फिर स्मृतियों में जड़़ जमाकर बैठ गया। डा. सुनीता को साथ यह फोटो मेरे विवाह के आसपास का है। यानी सन 1978। तो कोई तेंतीस बरस पुराने इस फोटो को ब्लाग पर देना मुझे सुखकर लग रहा है। शायद खुद भी इस बहाने कभी-कभी पुरानी स्मृतियों को जीने का सुख मिले।
सस्नेह, प्र.म.
Tuesday, May 10, 2011
रवींद्रनाथ टैगोर की अद्भुत बाल कविता राजा का महल
इस कविता को आप भी पढ़ें, क्योंकि इसे पढ़ने का मुझे लगता है, अपना सुख है। बच्चे ही नहीं, शायद बड़े भी इसका आनंद ले सकते हैं, क्योंकि इस कविता को पढ़ना अपने बचपन को फिर से जी लेने के मानिंद है। कविता में तीन पद हैं और तीनों में ही सुनहले तारों से बुनी बच्र्चे की रहस्य और कौतुक भरी दुनिया। तो अब कविता पढ़िए--
नहीं किसी को पता कहाँ मेरे राजा का राजमहल।
अगर जानते लोग, महल यह टिक पाता क्या एक पल।
इसकी दीवारें सोने की, छत सोने की धात की,
पैड़ी-पैड़ी सुंदर सीढ़ी उजले हाथी दाँत की।
इसके सतमहले कोठे पर सूयोरानी का घरबार,
सात-सात राजाओं का धन, जिनका रतन जड़ा गलहार।
महल कहाँ मेरे राजा का, तू सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।
सात समंदर पार वहाँ पर राजकुमारी सो रही,
इसका पता सिवा मेरे पा सकता कोई भी नहीं।
उसके हाथों में कँगने हैं, कानों में कनफूल,
लटें पलंग से लटकी लोटें, लिपट रही है धूल।
सोनछड़ी छूते ही उसकी निंदिया होगी छू-मंतर,
और हँसी से रतन झरेंगे झर-झर, झर-झर धरती पर,
राजकुमारी कहाँ सो रही, तू सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।
बेर नहाने की होने पर तुम सब जातीं घाट पर,
तब मैं चुपके-चुपके जाता हूँ उसी छत के ऊपर।
जिस कोने में छाँह पहुँचती, दीवारों को पार कर,
बैठा करता वहीं मगन-मन जी भर पाँव पसार कर।
संग सिर्फ मिन्नी बिल्ला होता है छत की छाँव में,
पता उसे भी है नाऊ-भैया रहता किस गाँव में।
नाऊ-टोला कहाँ, बताऊँ--तो सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।
इस कविता का बहुत सुंदर प्रवाहयुक्त अनुवाद किया है युगजीत नवलपुरी ने। युगजीत नवलपुरी के कई सुदर अनुवाद याद आ रहे हैं। पर यह सोचकर मुझ बड़ा दुख और ग्लानि हो रही है कि मैं इस विलक्षण अनुवादक के बारे में कितना कम जानता हूँ।
अगर मित्र इस बारे में कुछ बताएँ, तो अच्छा लगेगा।
दुकानों के साइनबोर्ड में जो कला है
9 मई, 2011, साहित्य अकादेमी सभागार। अभी कार्यक्रम शुरू होने में देर थी। मैं देवसरे जी के पास बैठा उनकी सेहत का हाल-चाल ले रहा था। तभी उऩकी एक कहानी याद आ गई--जूतों का अस्पताल। हम सब साथियों ने उसका खूब आनंद लिया था और फिर वह नंदन में छपी भी थी। मैंने देवससरे जी से उसकी चर्चा करते हुए कहा कि जाने क्या है आपकी उस कहानी में कि वह भुलाए भूलती नहीं। और फिर उसे पढ़ते ही यह भी याद आता है कि आपने उन दिनों अस्पतालों के खूब चक्कर काटे थे और खासे परेशान रहे थे। पर उन्हीं दिनों लिखी गई आपकी इस कहानी में कहीं उसकी छाया तक नहीं है। सच में बड़ी मजेदार सी कहानी है यह।
इस पर देवसरे जी ने बताया कि मनु, सच में ऐसा साइनबोर्ड मैंने देखा है। एक छोटा सा खोखा था, जिस पर साइनबोर्ड लगा था, जूतों का अस्पताल। और वहीं से यह कहानी आई।--कहते-कहते देवसरे जी मुसकराए।
इस पर मैंने कहा कि देवसरे जी, मैंने जूतों का अस्पताल तो नहीं देखा, पर घड़ियों का अस्पताल जरूर देखा है। और वह भी तब, जब मैं कोई आठ-दस बरस का था। बाजार के बीचोंबीच एक घड़ीसाज की दुकान पर यह बोर्ड लगा था। जितनी बार मैं वहाँ से गुजरता था, वह बोर्ड जरूर मेरी आँखों को खींचता था और मैं बड़े कौतुक से उसे देखता था। कुछ बड़ा हुआ तो उस घड़ीसाज के छोटे भाई से मेरी दोस्ती हो गई। मैंने उसे अपने मन की बात बताई तो वह खूब ठठाकर हँसा। मैं भी हँसा।
इस पर देवसरे जी को एक ओर दिलचस्रप साइनबोर्ड की याद आई। उन्होंने बताया कि उन दिनों विकासपुरी से मैं आया करता था, तो रास्ते में एक दुकान पर खूब बड़ा-बड़ा लिखा होता था--जूते ही जूते। और उसके नीचे बहुत छोटे अक्षरों में लिखा होता था--यहाँ मिलते हैं। कहकर वे हँसने लगे।
इस पर मुझे कुरुक्षेत्र के वे दिन याद आए, जब मैं वहाँ रिसर्च कर रहा था। सरोवर के निकट साइकिलों की मरम्मत करने वाले काले की दुकान थी। उसने अपनी दुकान पर लिख रखा था--
एह काले दी हट्टी,
सोहणा कम्म, थो़ड़ी खट्टी।
यानी यह काले की दुकान हैं। यहाँ काम अच्छा होता है, पर हम ज्यादा पैसे नहीं लेते।
कितनी सुंदर बात। मैं इसे भूला नहीं। सुनकर देवसरे जी और विभा जी ने भी माना कि वाकई ऐसी पंक्तयों में जीवन की कला है।
अगर मित्र लोग ऐसी ही देखी-पढ़ी जीवन की कविता की कुछ पंक्तयों की याद दिलाएंगे, तो मुझे सचमुच खुशी होगी। और खुद मुझे याद आएँगी, तो मैं यहाँ दर्ज करूँगा।
सच्ची बात तो यह कि जिंदगी की कविता, किताबों में लिखी कविता को हमेशा बीट करती है और करती रहेगी।
आपका क्या खयाल है।
आपका प्र.म.
रवींद्रनाथ टैगोर की बाल कविताएँ
रवींद्रनाथ टैगोर एक बड़े और सही मायनों में मुकम्मल साहित्यकार थे, इसकी एक बड़ी कसौटी यह भी है कि उन्होंने बड़ा अद्भुत बाल साहित्य लिखा है। ऐसा बाल साहित्य जिसमें मानो बच्चे का मन खुल पड़ा है और बड़े भी उसे पढ़ें तो उन्हें अपना बचपन और बचपन की अजब जिज्ञासाओं और कौतूहल से भरी कुछ-कुछ रहस्यपूर्ण दुनिया के तरह-तरह के खेल और नटखट शरारतें याद न आएँ, ऐसा हो ही नहीं सकता। बच्चे के मन की इतनी मनोहारी छवियाँ हैं रवींद्रनाथ टैगोर के यहाँ कि सूर की तरह उनके बारे में भी कहने का मन होता है कि उन्होंने बाल-मन को कोना-कोना छान मारा है। बच्चे का केवल जिज्ञासा-संसार ही नहीं, उसके भीतर का गुस्सा, रूठना-मनाना, उसके सपनों और इच्छाओं का संसार, भावुकता भरा रोष और यहाँ तक कि उसके भीतर हमेशा रहने वाला वीर नायक का-सा भाव कि वह कुछ ऐसा कर दे कि सबकी निगाहें बस उसी ओर उठ जाएँ और सारी दुनिया मान ले कि यह लल्ला तो सचमुच बड़ा वीर है, बड़ा हिम्मती और दिलेर है—इस तरह की सारी छवियाँ और उनसे निर्मित होता रंग-बिरंगा संसार रवींद्रनाथ टैगोर की बाल कविताओं में छलछला रहा है। लिहाजा उन्हें पढ़ते हुए कभी हमारे होंठों पर हंसी खेलने लगती है, कभी हम मुसकरा पड़ते हैं और कभी-कभी तो अचानक ठहाके लगाकर हँसने लगते हैं।
रवींद्रनाथ टैगोर की कई बाल कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें बाल मन की इतनी सरल जिज्ञासा और कौतूहल प्रकट हुआ कि इन कविताओं को पढ़ते हुए मानो हम फिर से बच्चे बन जाते हैं। उनकी ‘राजा का महल’ ऐसी ही कविता है, जिसे पढ़ते हुए अपने बहुत सारे अनोखे राज या रहस्यों वाला बच्चा एकाएक हमारी आँखों के आगे आ खड़ा होता है। जरा देखें तो, माँ से उसकी कैसी बातें होती हैं—
नहीं किसी को पता, कहाँ मेरे राजा का राजमहल।
अगर जानते लोग, महल यह टिक पाता क्या एक क्षण?
इसकी दीवारें चाँदी की, छत सोने की धात की,
पैड़ी-पैड़ी सुंदर सीढ़ी उजले हाथी दाँत की।
उसके सतमहले कोठे पर सूयोरानी का घर-बार,
सात-सात राजाओं का धन, जिनका रतन जड़ा गलहार।
महल कहाँ मेरे राजा का, तू सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।
जाहिर है, यह बात बच्चा माँ को ही बता पाता है और वह भी कान में। कारण यह है कि वही उसके भीतर सुनहले तारों से बुनी जाती कल्पना की अनोखी दुनिया को उसी प्यार और संवेदना के साथ समझ सकती है, जिस प्यार और संवेदना से उसका निर्माण हुआ है। इसी तरह ‘मेंह बरसता टुपुर-टुपुर’ रवींद्रनाथ टैगोर की बड़ी अद्भुत कविता है, जिसमें बच्चे के मन में बादलों की स्मृति तो है ही, पर उससे भी ज्यादा बादल भरे दिन और सुरमई शामों की स्मृति है जो एक साथ उसे रोमांचित और विह्वल करती है। जरा इऩ पंक्तियों में छिपे कथात्मक परिवेश पर गौर करें, जिनमें माँ या घर में बड़ों से सुनी लोककथाएँ बच्चे को एक अलग ही रहस्य और जिज्ञासाकुल संसार में ले जाती हैं और ऐसे में भला सुहागो रानी और दुहागो रानी की याद कैसे न आए? जरा इन पंक्तियों में छिपे एक खास तरह के नास्टेल्जिया पर गौर करें—
आती याद सुहागो रानी और दुहागो रानी की,
आती याद कहानी कंकावती सती अभिमानी की।
आती याद दिए की टिमटिम लौ की मोहन माया की,
एक ओर की भीत पर पड़ी काली-काली छाया की।
हर शब्द एकरस केवल, वर्षाजल का झुप-झुप झुप्प,
हुआ कहानी सुनकर माँ की नटखट बालक एकदम चुप्प।
चुपचुप उसका मन जाता है बादल-दिन के गान पर,
मेंह बरसता टुपुर-टुपुर, नदिया का पूर उफान पर।
‘मेंह बरसता टुपुर-टुपुर, नदिया का पूर उफान पर’—मानो कविता की इस पंक्ति में टैगोर ने बच्चे के भीतर घर बनाकर बैठी ढेर सारी कहानियों और लोककथाओं का रोमांच एक साथ पिरो दिया हो।
(साहित्य अकादेमी में रवींदनाथ टैगोर की डेढ़ सौवीं जयंती पर आयोजित सेमिनार(8-9 मई, 2011) में दिए गए व्याख्यान का एक अंश)
Monday, May 9, 2011
मित्रों के साथ कुछ यादगार क्षण
Sunday, May 8, 2011
एक लंबे सफर की याद
एक पुराना फोटो सुनीता जी के साथ। विवाह के कुछ ही समय बाद हम फतहपुर सीकरी देखने गए थे। मैं समझता हूँ, यह कोई सन 1979 की बात रही होगी। एक यादगार यात्रा थी, जिसके कुछ फोटो भी एक फोटोग्राफर ने खींचे थे। उन्हीं में से एक कुछ अलग सा फोटो। यानी तकरीबन बत्तीस साल हो गए, हालाँकि उम्र का पहाड़ भी मन में सोए हरियाली के अंकुर को खतम कहाँ कर पाता है-
कुछ अंतरंग क्षण-फोटो-एलबम
कुछ अंतरंग क्षण-फोटो-एलबम
Saturday, May 7, 2011
नंदन के साथी-पुनः
कल चाहते हुए भी नंदन के साथियों के साथ बिताए क्षणों के ज्यादा चित्र नहीं दे सका था। तरीका ही नहीं पता था। आज छोटी बेटी अपर्णा ने बताया कि चित्र ज्यादा हों, तो कैसे डालेंगे। अलबत्ता उन क्षणों को जब नंदन से सेवामुक्त हुआ था और अजब सी भावानाकुलता से भरा हुआ था, इन फोटोज के जरिए फिर से जी लेने का मन हुआ। तो लगा कि मित्रों के साथ भी इन्हें साझा किया जाए। अलबत्ता, तो वे फोटोज--
क्षमा करें, अब भी कामयाबी नहीं मिली। एक ही फोटो डाल सका हूँ। यह तो चक्कर ही कुछ अजब है। धीरे-धीरे सीखते-सीखते ही सीखूँगा। प्र.म.
Friday, May 6, 2011
नंदन के साथी
आज सुबह ही अचानक याद आया कि नंदन से सेवामुक्त हुए एक साल से छह दिन ऊपर हो गए। पता नहीं कैसे जंजालों में पड़ा होऊँगा कि कुछ याद ही नहीं रहा। पर फिर फोटो टटोले तो मिल गए और उनके साथ खूब वे घड़ियाँ ताजी हुईं। नंदन वालों ने बेशक बहुत प्यार दिया है, वरना मुक्त होने के बाद लोग तो पुराने साथियों को याद रखना भी जरूरी नहीं समझते। और यहाँ तो हालत यह हहै कि मुझे किसी ने यह एहसास ही नहीं होने दिया कि मैं नंदन में नहीं हूँ।
अलबत्ता उस दिन के कुछ फोटो यहाँ दे रहा हूँ। हालाँकि उन्हें देककर मैं आज भी चौंकता हूँ कि भला उस दिन मैं इस तरह एकदम पागलों की तरह खुश क्यों था। अलबत्ता, क्यों था, यह ना भी पता चले, पर इतना तो पता चलता ही है इन फोटो से कि उस दिन मैं खुश बहुत था।
तो चलिए, अब जरा फोटो पर एक नजर डाल लीजिए। हाँ, फोटो में शामिल आत्मीय जनों से आपका परिचय करा तो भूल ही गया। सबसे आगे प्रसन्न मुद्रा में श्रीमती क्षमा शर्मा, नंदन की कार्यकारी संपादक। साथ में हैं अनिल जायसवाल,चेतन पंवार, विमल चतुर्वेदी, देवेंद्रकुमार गेरा तथा सुनीता तिवारी। नंदन की उत्साह भरी टीम। इऩमें चेतन पंवार अब स्वतंत्र वेब डिजाइनर।
नंदन के साथियों के साथ ही नजर आ रही हैं डा. सुनीता और अपर्णा मनु।
शमशेर की कवि शख्सियत पर दिविक रमेश का लेख
दिविक जी, यह अद्भुत संस्मरण है, मन को बहुत गहरे भिगो देने वाला। शमशेर की शख्सियत के हर रंग को आपने पकड़ा है--उनकी फक्कड़ता, उनकी सरलता और एक अजब तरह की पवित्रता लिए काव्य-दृष्टि, जो कभी किसी बड़े से बड़े दबाव के आगे नहीं झुकी, और उन्हें जो कहना होता था, वे कहते थे और अपनी परी शमशेरियत के साथ कहते थे, जिसे टूटकर कहना या लिखना आपने कहा, जिससे उनके शब्द दिल में गहरे उतरते जाते थे, फिर चाहे कविता हो या गद्य। एक अजब सी सरलता के साथ एक अजब सी खुद्दारी और दृढ़ता, अपनी बात हमेशा अपने अंदाज में कहने की जिद्दी तड़प--और भी न जाने कौन-कौन सी चीजें रही होंगी, जो किसी शमशेर को शमशेर बनाती हैं। वैसा ही मुकम्मल कवि और मुकम्मल इनसान कि जैसे शमशेर थे और शायद सिर्फ शमशेर भी हो सकते थे। और फिर अपने बाद वाली पीढ़ी गले लगाने और आगे बढ़ते देखने की कैसी आकुलता--आपने लिखा है और खूब लिखा है। और फिर मैं भी पूरा, मेरा साहिब भी पूरा का उनका कबीरी ठाट--यह तो मैं शायद ताजिंदगी नहीं भूल पाऊँगा। एक भीतर तक भिगो देने वाले आत्मीय संस्मरण को पढ़वाने के लिए आभार। शमशशेर पर आपकी कविता भी बहुत डूबी-डूबी सी है जिसममें शमशेर समा गए लगते हैं। सस्नेह, आपका प्र.म.
बाल साहित्य का आलोचना-पक्ष
नागेश पांडेय संजय ने भी गंभीरता से काम शुरू किया है, पर उन्हें अभी और सतर्कता से यह परख करनी होगी कि आखिर वे कौन सी रचनाएँ हैं जो एक मयार बनाती हैं या बाल साहित्य की किसी विधा या धारा विशेष में एक बड़ा मोड़ उपिस्थत करती हैं। इसकी पकड़ हो तो आप सामान्य रचनाओं की भीड़ में से हमेशा अच्छी और यादगार रचना चुन लेते हैं। और सवाल सिर्फ अच्छी और बुरी में से अच्छी रचना चुनने का ही नहीं है, सवाल तो अच्छी और ज्यादा अच्छी में से ज्यादा अच्छी रचना चुनने का है और यह फैसला कहीं अधिक कठिन और चुनौतीभरा होता है। एक अच्छे से अच्छा रचनाकार जो कुछ लिखता है, वह सबका सब महत्वपूर्ण नहीं होता। इसे वह खुद जानता है। और इसे परखने की नजर आलोचक के पास होनी चाहिए।
मुक्तिबोध ने लिखा है कि अच्छे और बुरे के संगर से कहीं अधिक कठिन है अच्छे और अधिक अच्छे का संगर। इस संगर में कई बार आलोचक को लहूलुहान होना पड़ता है। लोग बुरा मानते हैं। उनका गुस्सा, नाराजगी और न जाने क्या-क्या सहना पड़ता है। पर यहीं एक अच्छे आलोचक की परख भी होती है।
इस कसौटी पर खऱे उतरने वाले ज्यादा लोग हमारे पास नहीं हैं। पर हैं। और यही चीज है जो आगे आऩे वाले समय में बाल साहित्य की ऊँची पताका लहराएगी।
Thursday, May 5, 2011
बाल साहित्य - मेरे कुछ विचार
अब कृष्ण शलभ शिशुगीतों पर भी इतना ही बड़ा काम कर रहे हैं। इसी सिलसिले में वे हमारे घर भी आए और उनकी इस असाधारण धुन ने हमारे घर में हर किसी को प्रभावित किया।
बाल साहित्य में ऐसे कुछ बड़े काम हों तो उन सभी को खुद ब खुद उत्तर मिल जाएगगा जो अब भी यह कहने की धृष्टता करते हैं कि आखिऱ हिंदी के बाल साहित्य में ऐसा है ही क्या।
और हाँ, अभी नागेश पांडेय ने बालमंदिर ब्लाग में हिंदी के सभी बाल साहित्यकारों को एक मंच पर लाकर एक ऐसा ही बड़ा काम किया है जिससे बाल साहित्य में सार्थक संवाद बढ़ेगा, और बड़े कामों की भूमिका बनेगी। हम सभी को इसमें सहयोग देना चाहिए।- प्र.म.
परियों की 51 मनमोहक कहानियाँ
अभी कल ही बड़े खूबसूरत ढंग से छपकर आई मेरी किताब, परियों की 51 मनमोहक कहानियाँ - में कुछ अलग ही अंदाज की परीकथाएँ हैं। इन कहानियों में ऐसी परियाँ हैं जिन्हें धरती की प्यारी छवि और रंगबिरंगी सुंदरता मोह लेती है और एक बार धरती पर आकर मानो वे कभी वापस नहीं जाना चाहतीं। यहाँ लोगों का भोलापन, प्यार, भावुकता और धरती के निश्छल और प्यारे-प्यारे नटखट बच्चे उन्हें बेहद मोहते हैं। ऐसी ही एक सुंदर और भोलीभाली नन्ही परी है गोगो, जो बच्चों में बिल्कुल बच्चा बनकर रम जाती है। उनके साथ मिलककर मिट्टी के खिलौने बनाती है, चित्रकारी करती है, खेलती और नाचती है और जब यहाँ से जाने लगती है तो बहुत उदास हेकर कहती है, अब मैं छुट्टियों में यहाँ आऊँगी और बहुत दिनों तक रहूँगी। कुछ नन्ही-मुन्नी कहानियाँ भी हैं, जिनमें एक से एक मजेदार अजूबे हैं और रोजमर्रा के जीवन की चीजें ही अपना रूप और शक्ल बदलकर क्या से क्या हो जाती हैं और सभी को खूब हँसी और खिलखिलाहट से भर देती हैं।
यह किताब डायमंड बुक्स, नई दिल्ली से छपी है और 223 पृष्ठों की इइस किताब की कीमत है, 100 रुपए।
जो बच्चे या मित्र इसे पढ़ें, उनकी राय जानकर अच्छा लगेगा। - प्र. म.
इंटरनेट पर हिंदी
इऩ दिनों यूनिकोड के आ जाने से हिंदी में अलग-अलग फांट्स के कारण होने वाली मुश्किलें काफी हट तक दूर हो चुकी हैं। लिहाजा स्वाभाविक ही हिंदी ने इस दिशा में मजबूती से पैर जमाए हैं। इनमें से कई ब्लाग्स तथा वेबसाइट मुख्य रूप से हिंदी साहित्य से जुड़ी जानकारी देती हैं। और कहीं-कहीं तो बाल साहित्य को लेकर भी अच्छे काम हो रहे हैं।
नागेश ने बालमंदिर नाम से एक मंच बनाया है, जहाँ सारे बाल साहित्यकारों की रचनाएँ एक साथ देखने को मिल जाती हैं।
इसी तरह अनुराग का लेखक मंच भी बड़ा अच्छा काम कर रहहा है और यह किसी अच्छी और सुलझी हुई साहित्यिक पत्रिका का सा रस देता है।
मेरी भी एक वेबसाइट ट्राईपाड पर है, पर इसमें अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।
इनके लिंक इस प्रकार हैं--
dr.prakashmanu.tripod.com
baal-mandir.blogspot.com
lekhakmanch.com
ऐसे ही कई अच्छे काम और हो रहे होंगे। उनके बारे में पता चलेगा, तो उन्हें भी एक जगह पर दर्ज करना चाहूँगा, ताकि आसानी से उन तक आवाजाही हो सके।
Wednesday, May 4, 2011
डा. सुनीता का बाल साहित्य
डा. सुनीता ने बच्चों के लिए खास तौर से कहानियाँ लिखी हैं। ऐसी कहानियाँ जिनमें गँवई गंध है। वे बहुत छुटपन से गाँव में अपनी नानी के पास रहीं और वे दिन संभवतः उनके जीवन के सबसे अअनमोल दिन थे। उऩ्हीं को उन्होंने अपनी बहुत सहज-सरल कहानियों में वड़े निराले अंदाज में बाँधा। उनकी बच्चों के लिए लिखी गई कहानियों के संग्रह हैं - नानी के गाँव में, खेल-खेल में बातें, फूलों वाला घर तथा दादी की मुसकान।
प्रकाश मनु-वार्ता
एक बच्ची की पापा से दो बातें
मेरे कविता-संग्रह छूटता हुआ घर में एक कविता है - एक बच्ची की पापा से दो बातें। इसमें बात रावण से शुरू होती है और फिर बढ़ते-बढ़ते बहुत कुछ को लपेट लेती है। इस कविता में जाने क्या है कि पढ़ते हुए आज भी आँखें भीग जाती हैं - प्र.म.
एक बच्ची की पापा से दो बातें
क्यों पापा, आप भी करते हैं क्या खूब कमाल की बातें
कि रावण आया था आपके दफ्तर
और उसकी मूँछें थीं ऐन बड़ी-बड़ी
मूँछें थीं या गलमुच्छे (गलमुच्छे ही कहते हैं न पापा?)
आपने उन्हें हाथ से छुआ था पापा, सच्ची-मुच्ची
डर नहीं लगा!
देखो झूठ न बोलना पापा!
पापा, सब रावणों की क्या मूँछें होती हैं
ऐसी-ऐसी टेढ़ी-बाँकी, रावण बड़े गंदे होते हैं न पापा
तभी तो आप बोल रहे थे उस रोज मम्मी से
बॉस साला रावण की औलाद है... रावणों को
कौन बनाता है पापा? कैसी होती है
रावण की औलाद?
अर्रे! तो क्या वो गंदा वाली नहीं था पापा? तो फिर
कैसा रावण रामलीला में कैसे
करता था पार्ट, क्यों फिर जला दिया
गया पापा पिछली दफा और फिर बच कैसे गया
ये तो कुछ चक्कर ही अजब है पापा!
चक्कर तो मगर एक और भी है कि अगर सारे गंदे ही
होते हैं रावण तो मैम तो मेरी पापा
मारती बहुत है, कोई बात नहीं सुनती सीट पर
खड़ा कर देती है, क्या वो भी
रावण होती है पापा?
सारे दिन बस सिर खाती रहती है मोटी वाली मैम कि लिखो
लिखो लिखो लिखने से जैसे हम
बन जाएँगे कलक्टर मेरी कापी एक दिन
डस्टबिन में फेंक दी थी पापा (कितनी गंदी बात!)
उस पर कवर नहीं था बस्स!
कवर क्या कापी से ज्यादा
जरूरी होता है पापा?
पापा मेरे लिए एक बंदूक लाना
असली धुएँ वाली और एक स्केल भी
मैम को मारूँगी
वो जाने क्या समझती है अपने आपको
खिलौने वाले कमरे में कभी जाने ही नहीं देती
ये भी नहीं समझती कि फिर ये खिलौने
हैं किस काम के अगर बच्चे ही न खेलें तो!
अच्छा एक बात बताओ पापा
हमें खिलौने के बगैर अच्छा नहीं लगता
तो खिलौने भी तो हमारे बिना उदास हो जाते
होंगे पापा, है न पापा?
अजी लो!
पकड़ी गई न आपकी भी चोरी
आप हमारे लिए खिलौने कब लाएँगे पापा आज तो
बता ही दीजिए साफ-साफ
आप तो कहते थे न लाऊँगा मैं दो गुड़िया दो गुड्डे
फिर खूब शादी करना उनकी गरमियों भर
दोनों बहनें मजे से
छुट्टियाँ तो पापा गरमी की बीत ही गईं
तो फिर कब करेंगे हम शादी कब होंगे बच्चे
नन्ही को कब सिखाऊँगी गुड्डे-गुडिय़ा वाला खेल?
और ये जो मकान नंबर ग्यारह सौ इकतीस का
टिंकू है न, बहुत खराब है पापा
अपने खिलौने तो बिल्कुल छूने ही नहीं देता
और मेरा एक ही भालू था वो फाड़ दिया
गरदन तो अब लटक ही गई एक आँख
भी गई
एक बात बताओ जरा पापा, टिंकू के पापा
इतने खिलौने लाते हैं कहाँ से इतने इतने इतने
चाबी वाले लाल-पीले-धानी खिलौने शोविंडो
में रखते हैं सजाकर
उनके पास बहुत पैसे होते होंगे पापा
आपसे ज्यादा पढ़े हुए हैं वे क्या
आपसे ज्यादा करते हैं मेहनत?
पर मैंने तो देखा है पापा कि आप तो
लिखते ही रहते हैं दिन भर कभी-कभी सुबह-सुबह
घर से निकल जाते हैं—काम करना है!
मम्मी को बताकर और हम सोते ही रह जाते हैं
(जागते हैं तो बहुत बुरा लगता है पापा
पर मम्मी कहती है काम जरूरी है
उसी से तो पैसे आते हैं घर में!)
तो फिर...
पैसे ज्यादा क्यों नहीं आते पापा?
क्या पढऩे-लिखने से कुछ नहीं होता पापा
न मेहनत से? तो फिर झूठ है न आपकी बात
हमसे फिर क्यों कहते हैं खूब लिखो
खूब पढ़ो बेटी नंबर लाओ अच्छे
मेहनत है सफलता की कुंजी...
अरे पापा, आप तो उदास हो गए बच्चों को
पूछने नहीं चाहिए न ऐसे-ऐसे सवाल
आपकी आँख में आँसू! लाओ मैं
पोंछ देती हूँ पापा, पापा आप हँसना सीखो खूब
खूब... मैं किसी से नहीं कहूँगी मेरे पापा
को पैसे मिलते हैं जरा कम कुछ नहीं माँगूँगी आपसे
एक ही खिलौने से चला लूँगी काम मेरा भालू वैसे ही
सबसे बड़ा है क्या हुआ जो एक आँख फूट गई उसकी
झूल गई है गरदन है न पापा?
अब तो मान भी जाओ न पापा हँसो हँसो
हँसो तो जरा बेटी के लिए
हा-हा, हा-हा-हा, हा-हा-हा
हा-हा, हा-हा
जी हाँ, ऐसे ही... मेरे अच्छे पापू जी!