इधऱ हमारे कई साहित्यिकों की जन्मशताब्दियाँ पड़ीं तो विचारों और विचारधारा की यह लड़ाई और अधिक विद्रूप शक्ल में सामने आई। जिन लेखकों ने कुछ पढ़ना-लिखना तो थोड़िए, अभी ठीक से हाथ में कलम पकड़़ना भी नहीं सीखा, उनके मुख से मोती झरने लगे कि अज्ञेय तो दो कौड़ी के लेखक हैं...या फिर अज्ञेय के सामने नागार्जुन या मुक्तिबोध कहाँ ठहरते हैं। मैं समझ नहीं पाता कि यह सब क्या है। एक उथलेपन और अराजकता के सिवा इसे और क्या नाम दे सकते हैं। और इसका हासिल। आम लोग जो साहित्य से काफी दूर आ चुके हैं, अब छिटककर और दूर चले जाते हैं और सोचते हैं कि अच्छा, ये लेखक तो सारे होते ही घटिया हैं...क्योंकि एक दूसरे को घटिया कह रहा है, दूसरा तीसरे को और तीसरा पहले और दूसरे को। कुल मिलाकर तो इससे सारे ही घटिया हो गए न। ऐसे घटिया शख्स भला दूसरों को क्या संस्कार देंगे और दूसरे इन्हें पढ़ें ही क्यों।
क्या इससे बेहतर यह नहीं है कि हम अपनी असहमतियों को ज्यादा शालीन ढंग से प्रकट करना सीखें। अज्ञेय मेरे भी पसंदीदा कवि नहीं हैं और वे मझे कवि के रूप में उतने महत्वपूर्ण नहीं लगते, जितने एक उपन्यासकार के रूप में। पर इसके बावजूद यह तो मैं नहीं कहूँगा या कभी नहीं कहना चाहूँगा कि वे दो कौड़ी के कवि हैं और जो ऐसा कहते हैं, उन्हें पसंद भी नहीं करूँगा। हमें पहले तो यह स्वीकार करना चाहिए कि वे हिंदी के बड़े और प्रतिष्ठित कवियों में से से हैं, बाकी सहमतियों-असहमतियों की बात बाद में कर जाए, तो क्या बेहतर नहीं होगा।
अलबत्ता, मैंने अपने तईं तो यह सीखा और तय किया है कि तुम्हें जो पसंद नहीं है, उससे अपनी असहमति जता दो, कोई हलकी छींटाकशी न करो। हाँ, जो तुम्हें अच्छा और महत्वपर्ण लगता है, जिसमें तुम्हें कई विशेषताएँ लगती हैं, जिनसे सीखा जा सकता है, उसके बारे में जरूर कहो और सौ मुखों से कहो, ताकि आजकल जो घोर अनास्था का माहौल बन रहा है, वह कुछ तो टूटे।
रास्ता एकमात्र यही है, मैं नहीं कह सकता। पर बड़ी घुटन के बाद अपने तईं मैंने यह तय किया है। दूसरे भी अपने-अपने ढंग से निकालें, तो निकलेगा रास्ता। हिंदी साहित्य उजड्ड गालियों और दूसरों को छोटा करके खुद महान बनने वाले अखाड़ेबाजों का अड्डा न बने, तो बेहतर है।
प्र.म.
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