Tuesday, May 10, 2011

रवींद्रनाथ टैगोर की बाल कविताएँ

प्रकाश मनु

रवींद्रनाथ टैगोर एक बड़े और सही मायनों में मुकम्मल साहित्यकार थे, इसकी एक बड़ी कसौटी यह भी है कि उन्होंने बड़ा अद्भुत बाल साहित्य लिखा है। ऐसा बाल साहित्य जिसमें मानो बच्चे का मन खुल पड़ा है और बड़े भी उसे पढ़ें तो उन्हें अपना बचपन और बचपन की अजब जिज्ञासाओं और कौतूहल से भरी कुछ-कुछ रहस्यपूर्ण दुनिया के तरह-तरह के खेल और नटखट शरारतें याद न आएँ, ऐसा हो ही नहीं सकता। बच्चे के मन की इतनी मनोहारी छवियाँ हैं रवींद्रनाथ टैगोर के यहाँ कि सूर की तरह उनके बारे में भी कहने का मन होता है कि उन्होंने बाल-मन को कोना-कोना छान मारा है। बच्चे का केवल जिज्ञासा-संसार ही नहीं, उसके भीतर का गुस्सा, रूठना-मनाना, उसके सपनों और इच्छाओं का संसार, भावुकता भरा रोष और यहाँ तक कि उसके भीतर हमेशा रहने वाला वीर नायक का-सा भाव कि वह कुछ ऐसा कर दे कि सबकी निगाहें बस उसी ओर उठ जाएँ और सारी दुनिया मान ले कि यह लल्ला तो सचमुच बड़ा वीर है, बड़ा हिम्मती और दिलेर है—इस तरह की सारी छवियाँ और उनसे निर्मित होता रंग-बिरंगा संसार रवींद्रनाथ टैगोर की बाल कविताओं में छलछला रहा है। लिहाजा उन्हें पढ़ते हुए कभी हमारे होंठों पर हंसी खेलने लगती है, कभी हम मुसकरा पड़ते हैं और कभी-कभी तो अचानक ठहाके लगाकर हँसने लगते हैं।
रवींद्रनाथ टैगोर की कई बाल कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें बाल मन की इतनी सरल जिज्ञासा और कौतूहल प्रकट हुआ कि इन कविताओं को पढ़ते हुए मानो हम फिर से बच्चे बन जाते हैं। उनकी ‘राजा का महल’ ऐसी ही कविता है, जिसे पढ़ते हुए अपने बहुत सारे अनोखे राज या रहस्यों वाला बच्चा एकाएक हमारी आँखों के आगे आ खड़ा होता है। जरा देखें तो, माँ से उसकी कैसी बातें होती हैं—
नहीं किसी को पता, कहाँ मेरे राजा का राजमहल।
अगर जानते लोग, महल यह टिक पाता क्या एक क्षण?
इसकी दीवारें चाँदी की, छत सोने की धात की,
पैड़ी-पैड़ी सुंदर सीढ़ी उजले हाथी दाँत की।
उसके सतमहले कोठे पर सूयोरानी का घर-बार,
सात-सात राजाओं का धन, जिनका रतन जड़ा गलहार।
महल कहाँ मेरे राजा का, तू सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।
जाहिर है, यह बात बच्चा माँ को ही बता पाता है और वह भी कान में। कारण यह है कि वही उसके भीतर सुनहले तारों से बुनी जाती कल्पना की अनोखी दुनिया को उसी प्यार और संवेदना के साथ समझ सकती है, जिस प्यार और संवेदना से उसका निर्माण हुआ है। इसी तरह ‘मेंह बरसता टुपुर-टुपुर’ रवींद्रनाथ टैगोर की बड़ी अद्भुत कविता है, जिसमें बच्चे के मन में बादलों की स्मृति तो है ही, पर उससे भी ज्यादा बादल भरे दिन और सुरमई शामों की स्मृति है जो एक साथ उसे रोमांचित और विह्वल करती है। जरा इऩ पंक्तियों में छिपे कथात्मक परिवेश पर गौर करें, जिनमें माँ या घर में बड़ों से सुनी लोककथाएँ बच्चे को एक अलग ही रहस्य और जिज्ञासाकुल संसार में ले जाती हैं और ऐसे में भला सुहागो रानी और दुहागो रानी की याद कैसे न आए? जरा इन पंक्तियों में छिपे एक खास तरह के नास्टेल्जिया पर गौर करें—
आती याद सुहागो रानी और दुहागो रानी की,
आती याद कहानी कंकावती सती अभिमानी की।
आती याद दिए की टिमटिम लौ की मोहन माया की,
एक ओर की भीत पर पड़ी काली-काली छाया की।
हर शब्द एकरस केवल, वर्षाजल का झुप-झुप झुप्प,
हुआ कहानी सुनकर माँ की नटखट बालक एकदम चुप्प।
चुपचुप उसका मन जाता है बादल-दिन के गान पर,
मेंह बरसता टुपुर-टुपुर, नदिया का पूर उफान पर।
‘मेंह बरसता टुपुर-टुपुर, नदिया का पूर उफान पर’—मानो कविता की इस पंक्ति में टैगोर ने बच्चे के भीतर घर बनाकर बैठी ढेर सारी कहानियों और लोककथाओं का रोमांच एक साथ पिरो दिया हो।

(साहित्य अकादेमी में रवींदनाथ टैगोर की डेढ़ सौवीं जयंती पर आयोजित सेमिनार(8-9 मई, 2011) में दिए गए व्याख्यान का एक अंश)

1 comment:

  1. क्या पूरा लेख मुझे मेल कर सकते हैं? उस दिन मुझे देवेश का मेसेज मिला पर मैं कहीं और था इसलिए इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम से वंचित रह गया. कल देवेश से मिला तो सुझाव दिया कि क्या अच्छा हो ऐसे आलेखों का एक दस्तावेज भी साहित्य अकादमी उपलब्ध कराने की व्यवस्था करे या प्रकाशित ही करे तो कितना अच्छा हो पर शायद उनकी अपनी सीमायें हैं.
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