Wednesday, May 11, 2011
एक दाढ़ीः किस्से हजार
जिन दोस्तों ने मेरी आज या कल की शक्ल देखी है, उन्हें शायद कल्पना करने में मुश्किल आए--और अगर यह फोटो अचानक सामने न आ जाता, तो मैं भी करीब-करीब भूल हही चुका था। पर भूली हुई चीजें भी कभी पूरी तरह भूलती नहीं, कभी न भभी, कहीं न कहीं से झाँकने ही लगती हैं।
तो ऐसे ही अचानक मेरी स्मृतियों की खूँटी पर एक दिन लटकती नजर आ गई अपनी दाढ़ी। याद आया, विवाह हुआ था, तब भी बंदा दाढ़ीदार ही था।। उसके बाद भी यह रही काफी समय तक और फिर एक दिन गायब हो गई। पर सच्ची बात तो यह है कि मन से तो कभी न गई यह दाढ़ी। बस, ऊपर से विलुप्त हो गई। उसी का नतीजा शायद यह है कि मझे दाढ़ी वाले लोग हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं। सत्यार्थी जी की दाढ़ीदार उजली हँसी पर तो मैं अपनी सात जिंदगियाँ कुर्बान करने को तैयार रहता था और हूँ।
फिर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की दाढ़ी। बल्कि कहना चाहिए कि उनकी विश्वप्रसिद्ध दाढ़ी। काका कालेलकर को जिन्होंने बगैर दाढ़ी के देखा है, वही जान सकते हैं कि दाढ़ीदार काका ककालेलकर की धज कैसे एकदम अलग थी। यही बात त्रिलोचन के बारे में कही जा सकती है। और दीनबबंधु एंड्रयूज...सबकी शख्सियत में उनकी दाढ़ी का विनम्र योगदान।
मैं बहुत लंबे समय तक दाढ़ीवान तो नहीं बना रह सका, पर दाढ़ी से इश्क या प्यार जरूर रहा। और ये पंक्तियाँ लिखते हुए बहुत याद आ रहे हैं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, जिन्होंने सत्यार्थी जी की दाढ़ी की प्रशंसा में संस्कृत में एक पूरा श्लोक ही रच डाला था। तो दाढ़ी के साथ विनोद भाव भी है, गुस्सा और रोष भी। और भी न जाने क्या-क्या। जब मैं दाढ़ी वाला था, तो मन उन दिनों कैसा हुआ करता था, इसे तो मै लाख बताना चाहूँ, फिर भी नहीं बता सकूँगा।
अलबबत्ता, दाढ़ी पर इस लंबी टीप से तो बेहतर है, मैं वह फोटो ही पेश कर दूँ जो अचानक पिछले दिनों मिला और फिर स्मृतियों में जड़़ जमाकर बैठ गया। डा. सुनीता को साथ यह फोटो मेरे विवाह के आसपास का है। यानी सन 1978। तो कोई तेंतीस बरस पुराने इस फोटो को ब्लाग पर देना मुझे सुखकर लग रहा है। शायद खुद भी इस बहाने कभी-कभी पुरानी स्मृतियों को जीने का सुख मिले।
सस्नेह, प्र.म.
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