



समर्पण--
उन सभी को जिनकी स्मृतियों में
सत्यार्थी जी का प्रसन्न चेहरा
और जिंदादिली से भरी सदाबहार शख्सियत
आज भी दस्तक देती है।
लोक साहित्य का वह युगनायक
सत्यार्थी जी आज होते तो एक सौ तीन बरस के होते। हालाँकि लोकगीतों का वह फक्कड़ फकीर आज नहीं है, यकीन नहीं होता। अपने बाद वाली पीढ़ी को इतने प्यार से गले लगाने वालों में या तो मैंने बाबा नागार्जुन को देखा था या फिर सत्यार्थी जी को, जिनका प्यार हर मिलने वाले पर न्योछावर होता था। उनकी जन्मशताब्दी आई और चुपचाप चली गई। उनकी जीवनी मैं लिख रहा था और चाहता था कि उनके जन्मशताब्दी वर्ष में ही आ जाए। पर वह हो नहीं सका। मैं ही उसे पूरा नहीं कर सका था। अब शायद कुछ ही समय में वह छपकर आ जाए। आज सत्यार्थी जी का जन्मदिन है, तो मन में घुमड़ती उनकी यादों के साथ ही उन पर लिखी गई इस जीवनी-पुस्तक की कहानी यहाँ दे रहा हूँ। शायद मित्रों को उसे पढ़ना सुखकर लगे--
लोक यायावर देवेंद्र सत्यार्थी उन युगनायकों में से थे जिन्होंने लोकगीतों को अपार प्रतिष्ठा दिलवाई और स्वाधीनता संग्राम में लोक की बड़ी और रचनात्मक भूमिका को रेखांकित किया। कोई बीस साल तक उन्होंने भारत के गाँव-गाँव की परिक्रमा कर, जनगंगा की भावधाराओं की तरह दूर-दूर तक पसरी टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों को अपने धूलभरे पैरों और अथक इरादों से नापते हुए देश का चप्पा-चप्पा छान मारा। यहाँ तक कि बर्मा और लंका भी हो आए। और वह भी खाली जेब। लेकिन जहाँ वे जाते, वहाँ उनकी असाधारण लगन से प्रभावित होने वाले लोग मिल जाते। कहीं रुकने और खाने-पीने का थोड़ा इंतजाम हो जाता और लोकयात्री अपना थैला उठाकर अगले मुकाम की ओर बढ़ जाता। लोग ही उनकी अगली यात्रा के लिए बस या रेलगाड़ी के किराए का इंतजाम कर देते और लोकगीतों की तलाश में निकले सत्यार्थी जी का अकेले का यह अद्भुत कारवाँ बिना थके आगे बढ़ता ही जाता।
बाद में विवाह हुआ तो पत्नी शांति भी सहयात्री हो गईं। नन्ही कविता का जन्म भी इसी सफर में हुआ और वह भी एक नन्ही सहयात्री हो गई। इसी अथक लोकयात्रा में महात्मा गाँधी और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का आशीर्वाद मिला और दोनों ने ही बड़े भावपूर्ण शब्दों में सत्यार्थी जी के काम के महत्व को रेखांकित करते हुए, इसे देश का काम बताया, जिसमें लोक हृदय की सच्ची झाँकी है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसे राष्ट्रीय-सांस्कृतिक जागरण माना और याद किया कि बचपन में उनका यह सपना था कि वे बैलगाड़ी में बैठकर पूरे बंगाल की परिक्रमा करें और पल्ली गीतों (बांग्ला लोकगीतों) का संग्रह करें। गुरुदेव का वह सपना भले ही पूरा नहीं हो सका, पर सत्यार्थी जी की अनोखी धुन में उन्हें उसी सपने की जगमगाहट नजर आई। उन्होंने इस निराले खानाबदोश की डायरी में एक कविता की ये पंक्तियाँ लिखीं, ‘‘ओ खानाबदोशो, मेरे शब्दों में छोड़ जाओ, अपनी खुशबू!’’
गाँधी जी हों या गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, दोनों ही सत्यार्थी जी को अकसर चर्चाओं के लिए बुलाते थे और उनसे विस्तार से उनकी अनजानी लोकयात्राओं और उनसे हासिल हुए सुंदर भावपूर्ण और रंग-रँगीले लोकगीतों की बाबत पूछते थे। शांतिनिकेतन तो एक तरह से सत्यार्थी जी का हॉल्ट स्टेशन था। कहीं भी आते-जाते हुए अपनी अनिश्चित यात्राओं के बीच वे शांतिनिकेतन जाने का अवसर जरूर निकाल लेते। वहाँ संथाल आदिवासियों के लोकजीवन को निकट से देखने-जानने के साथ-साथ गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से खुली अनौपचारिक चर्चाओं का सुख मिलता था। गुरुदेव ने उनसे कहा था कि वे जब भी शांतिनिकेतन में हों, शाम की चाय के समय उनसे मिलने और चर्चा के लिए जरूर आएँ।
सत्यार्थी जी के लिए यह दुर्लभ सुख था। कवींद्र रवींद्र के सृजन-क्षणों को नजदीक से महसूस करने और उनसे विभिन्न विषयों पर विचार-विनिमय का यह अवसर सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं के लिए मानो पाथेय बन गया। इससे अपनी कठिन और दुर्गम यात्राओं के लिए उन्हें खासी ऊर्जा और नैतिक बल मिला। और बेशक इससे गाँवों की धूलभरी पगडंडियाँ उनके लिए घर सरीखी होती चली गईं, जहाँ अपनी धुन में मगन उनके कदम आगे बढ़ते जाते, बढ़ते ही जाते। रास्ते में गाँव वालों से मिलना, उनसे गीत सुनकर उन्हें कापी में उतारना, उनमें आने वाले आंचलिक शब्दों और लोक परंपराओं की जानकारी लेकर उनके भाव को समग्रता से ग्रहण करना और फिर आगे की यात्रा। इसी यात्रा में देश के हर अंचल की भाषाएँ सीख लीं गईं। ऐसे लोग भी मिले जिनकी मदद से गीत के मूल भाव को ग्रहण कर पाने में आसानी हुई। फिर इन लोकगीतों पर सत्यार्थी जी ने जो लेख लिखे, उनकी दूर-दूर तक धूम रही। ‘हंस’, ‘विशाल भारत’ और ‘प्रीतलड़ी’ के अलावा, ‘मॉडर्न रिव्यू’ और न्यूयार्क से निकलने वाली ‘एशिया ’ पत्रिका तक ने उन्हें बड़े सम्मान से छापा।
खुद गाँधी जी विशाल भारत में छपने वाले सत्यार्थी जी के लेखों को बहुत रस लेकर पढ़ते थे। इसका जिक्र उन्होंने सत्यार्थी जी को लिखे एक आत्मीय पत्र में किया है। और सन् 1936 के फैजपुर कांग्रेस अधिवेशन में गाँधी जी ने काका कालेलकर को खास तौर से भेजकर सत्यार्थी जी को उस अधिवेशन में शिरकत करने के लिए बुलाया था। वहाँ सत्यार्थी जी ने लोकगीतों पर मुक्त मन से व्याख्यान दिया, तो उनके मुँह से भारत की गुलामी की पीड़ा से जुड़ा एक करुण लोकगीत सुनकर गाँधी जी ने भावुक होकर कहा, ‘‘मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण एक पलड़े में रख दिए जाएँ और दूसरे में यह अकेला लोकगीत, तो लोकगीत का पलड़ा ही भारी रहेगा।’’
इससे पता चलता है, लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी ने उस दौर में लोक और लोकगीतों को राष्ट्रीय जागरण का पर्याय बनाकर कैसे जन-जन में प्रतिष्ठित कर दिया था। शहरों के पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोग हों या लेखक, प्राध्यापक, समाज-सुधारक, राजनेता सबका ध्यान लोकगीतों की तरफ गया, जिनमें धरती का हृदय बोलता है और लाखों लोगों के सुख-दुख की अकथ कहानियाँ और सीधी-सच्ची भावनाएँ छिपी हैं। यही वजह है कि बीसवीं सदी के साहित्यिक, सामाजिक या राजनीतिक फलक पर मौजूद शायद ही कोई बड़ी शख्सियत हो, जिससे सत्यार्थी जी की मुलाकात न हुई हो। पं. मदनमोहन मालवीय, राजगोपालाचार्य, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, के.एम. मुंशी, शरत, प्रेमचंद, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, कलागुरु अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु, रामकिंकर, राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय सबसे उनकी अंतरंग मुलाकातें हुईं। और मंटो, बेदी, कृश्न चंदर तो उनके समकालीन ही थे जिनके साथ उनकी कहानियाँ उर्दू के रिसालों में बड़ी धूम से छपती थीं।
यों लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी के समूचे जीवन पर नजर डालें, तो उनके जीवन के बस, दो ही बीज शब्द थे, ‘यात्रा’ और ‘लिखना’। कोई पचानबे वर्ष लंबे उनके जीवन के पूर्वार्ध में यात्रा, यात्रा और यात्रा समाई हुई थी, तो उत्तरार्ध में लिखना, लिखना और निरंतर लिखते-लिखते ही जीना, यही उनके जीवन का मूल मंत्र बन चुका था। हालाँकि चाहे उनका एक अलग राह लेता बचपन हो या तरुणाई की अनथक यात्राएँ और बाद के दौर का खुद में डूबा-डूबा सा लेखन, रचनात्मकता की एक निरंतर कशिश उन्हें हमेशा खींचती और लुभाती रही। और इसी ने लोकगीतों पर ‘धरती गाती है’, ‘बेला फूले आधी रात’, ‘बाजत आवे ढोल’ और ‘धीरे बहो गंगा’ जैसी कालजयी कृतियाँ देने के साथ-साथ सत्यार्थी जी को सर्जनात्मक क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया। उनकी कहानियाँ हों, कविताएँ, लेख, संस्मरण, रेखाचित्र या उपन्यास, सबमें धरती और खानाबदोशी की गंध बसी है जो उन्हें भीड़ में एक अलग पहचान देती है।
और फिर सत्यार्थी जी की बातों में इतना सम्मोहन था कि उनसे मिलने को मन ललकता था। बार-बार मिलना होता था और देर तक मिलने पर बातों और किस्सों की मीठी सुवास! सत्यार्थी जी कभी सीधी लीक नहीं चले, हमेशा मन की मौज में जिए। इसीलिए उनसे अकसर होती बातचीत और ‘रचनात्मक संवाद’ भी इतने आत्मीय और ताजगी से लबरेज होते थे कि उन्हें भुला पाना कठिन है। मुझे याद है, उम्र के आखिरी चरण में भी जब पूछा गया कि क्या वे अपनी सृजन-यात्रा से संतुष्ट हैं या अभी कुछ और लिखना बाकी है, तो उनका अथक उत्साह और निश्छलता से भरा जवाब था, ‘‘देखिए, चैन तो मुझ बेचैन आदमी को कभी है ही नहीं और शायद मरकर भी नहीं होगा। मैं तो बस लिखते...लिखते...लिखते ही जाना चाहता हूँ। आजकल अपनी आत्मकथा का चौथा और आखिरी खंड ‘अमृतयान’ पूरा करने में लगा हूँ।’’
‘अमृतयान’ वे पूरा नहीं कर सके, पर उनकी अधूरी पांडुलिपियों की पुकार में बहुत कुछ ऐसा है, जिससे समझा जा सकता है कि उनकी वह बेचैनी क्या कुछ लिख पाने की बेचैनी थी। और अगर ‘अमृतयान’ पूरा होता तो उसके जरिए कौन सी कही-अनकही कहानियाँ सामने आ सकती थीं? उनकी अधूरी पांडुलिपियों में अमृतयान का पूरा नक्शा मौजूद है, जिससे उनकी आत्मकथा को देर-सबेर एक व्यवस्थित शक्ल दी जा सकती है।
फिर याद आती हैं, उनसे हुई बातें, अनवरत बातें, जिनमें पूरी एक सदी का जीवंत इतिहास छिपा है। उनसे मिलकर बातें करते हुए लगता था, मानो हम इतिहास के चक्करदार मोड़ों और बड़े गुंबदों के नीचे जा पहुँचे हैं, जहाँ हर क्षण कुछ न कुछ नया और विस्मयकारी घट रहा है। हम उस दौर के साहित्य, संगीत, कला, संस्कृति और फिल्म-जगत ही नहीं, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों की बड़ी से बड़ी शख्सियतों के रूबरू खड़े, उनकी बातें सुन रहे हैं। और होते-होते किसी जादू-मंतर की तरह खुद हम भी उस दौर का एक अनिवार्य हिस्सा हो जाते थे, जिसमें वह समय अपनी समूची हलचल और धड़कनों के साथ हमारे भीतर बहने लगता था।
यों सत्यार्थी जी जब-जब मिलते, तो बातें तो होती ही थीं। बातें, बातें और अंतहीन बातें जिनमें आज के समय के साथ-साथ पुरानी यादों का एक पूरा सैलाब नजर आता। मैं उनमें बहता, तो बहता ही जाता था। पर मन था कि थोड़ी व्यवस्थित बातचीत हो जिससे उनकी पूरी जीवन-कथा की झाँकी सामने आए। और सौभाग्य से उसका अवसर भी आ गया। सत्यार्थी जी जब नवीं दहाई को छू रहे थे, उनसे कई दफा लंबी बातचीत का मौका मिला। कभी-कभी तो यह बातचीत दिन भर भी चलती। कहीं न कहीं लोभ यह भी था कि पंख फडफ़ड़ाकर उड़ती चिडिय़ों सरीखी उनकी स्मृतियाँ कहीं एक सिलसिले में बँध जाएँ, ताकि उनके जीवन-संघर्षों का एक सुविव्यस्त कथा सामने आए।
सत्यार्थी जी जैसे कद्दावर शख्सियत वाले बीहड़ और औघड़ शख्स के आगे बार-बार मेरी कोशिश विफल होती। लेकिन अंतत: कई टेढ़े-मेढ़े घुमावों के बावजूद एक लंबी बातचीत हुई, जो एक पुस्तक के रूप में सामने आई। सत्यार्थी जी की जीवन-कथा लिखने बैठा, तो उन्हीं में से एक कुछ बातें फिर-फिर यादों के दरिया में से उझक-उझककर सामने आ गईं। आती ही गईं। एक अनवरत सिलसिला।
आज लगता है, जादू के परों पर सवार थे वे दिन। फरीदाबाद से सत्यार्थी जी के निवास, दिल्ली की नई रोहतक रोड तक का करीब-करीब दो-ढाई घंटे का सफर। घर से सुबह-सुबह निकलता था, फिर भी मन में हल्की-सी धुकुर-पुकुर। कहीं ऐसा तो नहीं कि घर से निकल गए हों किसी काम से? या फिर स्वास्थ्य...? मैं मन ही मन उनके जीवट और उनकी जीवनी शक्ति को प्रणाम करता। पर कई बार मन में एक हलका भय भी कौंधता, कहीं किसी क्षण डाल से टपक ही गए तो? कई बार अजीब-सा भ्रम होता। अभी हैं, अभी नहीं! यों सत्यार्थी जी के होने में जिस एक और व्यक्ति का जीवट जुड़ा हआ है, सत्यार्थी से भी बड़ा जीवट—वे थीं लोकमाता। सत्यार्थी जी की पत्नी, जिन्होंने खुद को तिल-तिल गलाकर भी, परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ खुद ओढ़कर अपने इस दाढ़ी वाले मस्त कलंदर को मुक्त और बेफिक्र रखा, जी भरकर घूमने, यात्राएँ करने और लिखने के लिए।
अकसर मैं वहाँ जाता तो घर का दरवाजा हमेशा की तरह खुला होता। जैसे कह रहा हो, यह एक ऐसे घर का दरवाजा है जहाँ बगैर खटखटाए कोई भी भीतर जा सकता है। मैं चुपके से भीतर जाकर झाँकता। देखता, सत्यार्थी जी हैं, अपनी उसी आरामकुर्सी पर समाधि लगाए हुए लिख रहे हैं। पास ही रखा टीवी अपनी धुन में कुछ बोलता जा रहा है और उससे एकदम बेपरवाह सत्यार्थी अपनी धुन में कुछ लिखते जा रहे हैं। हाँ, एक बात जरूर है। पहले अकसर सत्यार्थी के आसपास रेडियो चल रहा होता था और बाद के दिनों में टीवी जिसे सत्यार्थी जी देखते कम, शायद सुनते ज्यादा थे। रेडियो की ही तरह। हाँ, उन्हें लेकिन ऐसे किसी ‘दोस्त’ या एकांत के साथी की दरकार जरूर थी। कोई आवाज,कोई ध्वनि, संगीत...कानों में कुछ पड़ता रहना चाहिए जरूर। बस, सत्यार्थी जी की इससे समाधि लग जाती थी।
याद पड़ता है, मेरे चुपचाप भीतर पहुँचने पर भी अकसर सत्यार्थी जी की लिखने की समाधि टूटती नहीं थी। वे हलका-सा चौंककर इधर-उधर देखते थे। फिर धीरे-से अपने काम में लग जाते थे। और मैं दुविधा में ठिठका सा वहीं खड़ा रहता, जैसे तय न कर पा रहा होऊँ कि क्या मैं आगे बढ़ूँ या उन्हें यों ही काम करते देखता रहूँ कुछ देर और...? आगे कुछ सोचूँ, इससे पहले ही उस सफेद-सी छाया के प्रभाव में आ जाता, जो धीरे-धीरे डगमगाते कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ रही होती। लोकमाता! सत्यार्थी जी की पत्नी, जिन्हें बाद में चलकर सत्यार्थी जी इसी नाम से पुकारने लगे थे।
‘मनु...।’ माता जी के चेहरे पर एक प्रसन्नता मिश्रित चमक उभरती। वही काँपती हुई, लरजती आवाज। मैं उनके पैरों की ओर बढ़ता, तो वे प्यार से मेरा सिर थपथपा देतीं। और फिर सत्यार्थी जी भी कागज-पत्तर एक ओर रख, प्रसन्नता से हँसकर मेरा हाथ थाम लेते।
थोड़ी देर में एक छोटी-सी, मामूली सी ट्रे में जिसका लाल रंग कभी का बुझ चुका था, वे दो कप चाय लेकर आतीं और एक प्लेट में थोड़े से बिस्कुट। कई बार उन प्यालों की ऊपर की किनोर टूटी हुई लगती। लेकिन इससे न उन बातों का रस कम होता और न लोक यायावर से मिलने का आनंद, जिनमें न जाने कौन-कौन सी यादों के काफिले आकर शामिल हो जाते और एक अव्याख्येय सुख की नदी बहने लगती। और यों बातें, बातें, अनवरत बातें। बातों का यह अजस्र सिलसिला कब शुरू हुआ, कुछ पता ही नहीं चलता था। उनमें से बहुत सी बातें और यादें इस पुस्तक को लिखने में मददगार बन गईं।
फिर आकाशवाणी के अभिलेखागार के लिए उनका एक लंबा और अनौपचारिक इंटरव्यू करने का सुयोग मिला, जो लगातार कई दिनों तक चला। ठीक वैसा ही जैसे अज्ञेय, बनारसीदास चतुर्वेदी आदि के लंबे इंटरव्यू वहाँ हो चुके थे और वे पुस्तकाकार भी सामने आए। सत्यार्थी जी को जब इस योजना के बारे में बताया गया, तो उन्होंने बड़े मुक्त भाव से उन्होंने मुझे आश्वस्त किया एक पारिवारिक बुजुर्ग की तरह, ‘‘जब भी आपका जी चाहे, रख लीजिए।’’
और सच में वह एक यादगार बातचीत रही, जिससे उनकी औघड़ जिंदगी की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों के बारे में बहुत सी नई और यादगार बातें पता चलीं। बातचीत में वाकई उनका सुर बँध गया। हाँ, बीच-बीच में कुछ नाम सत्यार्थी जी जरूर भूलने लगे थे। कभी-कभी कोई किस्सा सुनाने लगते, तो आसपास की गलियों, कूचों, खड्डों-खाइयों में इस कदर बिला जाते हैं कि लगता है, असली बात तो छूट ही गई। पर नहीं, इधर-उधर की सत्रह गलियों को पार करने के बाद के शुरुआती और आखिरी छोर को जब वह उस्तादाना कौशल से जोड़ रहे होते, तब समझ में आ जाता कि यह बूढ़ा जादूगर कैसी हस्ती है। फिर सत्यार्थी जी के समूचे सृजनात्मक लेखन, खासकर कहानियों और संस्मरणों में उनकी आत्मकथा और गुजरे वक्त के यहाँ-वहाँ बिखरे हुए सूत्र मौजूद हैं। उनसे भी बहुत मदद मिली। सत्यार्थी जी की आत्मकथा भी बहुत सहायक हुई। भले ही आत्मकथा के बाद के खंडों में अमूर्तन और बिखराव अधिक हो, पर उनकी जीवन-कथा के बहुत जरूरी वृत्तांत वहाँ संकेतों और सूत्र-रूप में हैं।
यों भरा-पूरा जीवन जीकर गए लोकयात्री सत्यार्थी सच में एक इतिहास-पुरुष हैं। कोई पचानबे वर्ष बगैर किसी राग-द्वेष के जी गया एक लोक-पुरुष, जिसने अनंत यात्राएँ की हैं और और लोक साहित्य तथा उसकी विरासत को आगे आने वाली पीढिय़ों के लिए सहेजकर रखा। साथ ही उनका विपुल सृजनात्मक लेखन भी मानो पुनर्मूल्यांकन की चुनौती के साथ हमारे सामने मौजूद है। अपने जीवन-काल में ही जीवित किंवदंती बन चुके देवेंद्र सत्यार्थी और उनके सदाबहार व्यक्तित्व के कुछ अक्स इस पुस्तक के जरिए पाठकों तक पहुँच सकें तो मुझे लगेगा कि यह श्रम सार्थक हो गया।