Wednesday, May 25, 2011

रमेश तैलंग के बालगीतों का शरारती अंदाज



रमेश तैलंग की बात चलेगी, तो थोड़ा पीछे जाना होगा। थोड़ा नहीं, काफी।...ओह, होते-होते कोई बाईस-तेईस बरस तो हो ही गए। या शायद ज्यादा। और यह शख्स जो कि कवियों का कवि है और एक सदाबहार इनसान, नहीं बदला। हरगिज नहीं बदला। पहली बार जैसा देखा था, हूबहू आज भी वैसा ही।

बात मेरे खयाल से सन 88 की रही होगी। नंदन में आए हुए मुझे कोई दो बरस हो गए थे और बाल साहित्य में खूब डुबकियाँ लगाने लगा था। भारती जी ने नंदन के लिएए कविताएँ चुनने का जिम्मा मुझे दिया था। जो मेरी पसंद की कविताएं होतीं, मैं प्रकाशनार्थ आई ढेर सारी कविताओं में से चुनकर उन्हें दिखा देता। आम तौर से उनमें से ही वे कविताएँ फाइनल कर लेते और फिर मैं कविता का पेज बनवाने की तैयारियों में लग जाता। इस बहाने हर महीने ढेरों कविताएँ पढ़ने को मिलतीं। अच्छी भी, साधारण भी। फिर नंदन के पुराने अंकों को देखा तो एक से एक दिग्गज लेखक वहाँ मौजूद थे, जिनमें दिनकर, प्रभाकर माचवे, भवानी भाई, वीरेंद्र मिश्र, रामावतार त्यागी, सेवक जी, माहेश्वरी जी...और यहाँ तक कि फणीश्वरनाथ रेणु, ममता कालिया और कृष्णा सोबती की बाल कविताएँ। पहली बार जाना कि बाल कविताओं के परिदृश्य में कितना कुछ समाया हुआ है। पढ़कर लगभग नशे की हालत थी। खुद भी लिखता था और मन में कहीं न कहीं यह सपना भी जाग ररहा था कि बाल कविताओँ में कितना कुछ काम हुआ हहै, यह लोगों को बताना चाहिए।

उन दिनों देवेंद्र भी बहुत अच्छी बाल कविताएँ लिख रहे थे। मैं उनकी बाल कहानियों का आनंद ले चुका था। बाल कविताओं के अँदाज से भी धीरे-धीरे परच ररहा था। तभी एक दिन उन्होंने एक नए और अपरिचित शख्स की कुछ बाल कविताएं दिखाईं और कहा, जरा देखिए मनु जी, ये कविताएँ कैसी हैं। ये शख्स भी हिंदुसस्तान टाइम्स में हैं--विज्ञापन विभाग में।

मैंने सोचा था, फुर्सत में पढ़ूँगा कविताएँ। हाँ एक बानगी ले लूँ। पर शुरू में ही अले, छुबह हो गई, टिन्नी जी और ढपलू जी रोए आँ...ऊँ सरीखी कविताएँ पढ़कर मैं तो जैसे उछल पड़ा--अरे वाह, ये होती हैं कविताएँ तो। बड़े दिनों बाद ऐसी कविताएँ पढ़ीं कि मन झूम उठा। लगा, किसी तरह ईश्वर बच्चा बना दे, ताकि इन कविताओँ का पूरा आनंद ल सकूँ।

बाद में देवेंद्र जी ने पूछा कि मनु जी, आपने पढ़ लीं कविताएं, कैसी लगीं। मैंने कहा, देवेंद्र जी, आप पूछ रहे हैं, कैसी लगीं। जबकि मैं तो इन्हें पढ़कर सच्ची-मुच्ची पागल हो गया, जैसे जमीन पर ही नहीं हूँ। अद्भुत है यह शख्स। है कहाँ, जल्दी से मिलवाइए। जरा अपनी छाती से लगा लूँ, नहीं तो चैन नहीं पड़ेगा मुझे।

तब से तो नदी में बहुत पानी बह गया। और तैलंग की कविताएँ ही नहीं, कविता कहने का हुनर भी खूब निखरता गया, निखरता ही गया। आाज कोई पूछता है कि मनु जी, अच्छी कविताएँ कैसी होती हैं...तो पुराने कवियों में तो शेरजंग गर्ग, दामोदर अग्रवाल, सेवक जी सरीखे बहुत नाम गिनाए जा सकते हैं, पर इधर लिख ररहे किसी उस्ताद कवि का नाम लेना हो, तो मैं रमेश तैलंग का नाम लेना ही पसंद करता हूँ। कोई मुझसे कहता है, मनु जी, आपकी बच्चों की कविताएँ देखीं। अच्छी लगीं। तो मैं कहता हूँ अभी आपने रमेश तैलंग को नहीं पढ़ा। उन्हें पढ़ा होतता, तो ऐसा न कहते। बाल कविताएँ तो तैलंग लिखते हैं और हम सब तो बस उन्हें स्पृहा से निहारते भर हैं कि ओहो, ऐसी जानदार और शानदार बाल कविताएँ जिनमें बच्चे का शरारती मन और उसकी संवेदना छलक रही होती है, भला लिखी कैसे जाती हैं।

रमेश तैलंग और देवेंद्र के साथ मेरी चुनी हुई बाल कविताओँ का संग्रह हिंदी के नए बालगीत निकला था, जिसमें सबसे अधिक सराही गई थीं तैलंग की कविताएँ। अभी कुछ अरसा पहले सरला प्रकाशन से बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक माला निकाली, तो तैलंग को तो उसमें होना ही था। उस संग्रह का नाम है--टिन्नी जी, ओ टिन्नी जी। उसमें से तैलंग की निक्का पैसा कविता यहाँ दे रहा हूँ। लीजिए आप भी इसका आनंद लीजिए--

निक्का पैसा

निक्का पैसा कहाँ चला,
कहाँ चला जी, कहाँ चला।

पहले रहा हथेली पर
फिर जा गुड़ की भेली पर
चिपक गया चिपकू बनकर
यहाँ चला न वहाँ चला।

धूप लगी, गुड़ पिघल गया
निक्का पैसा निकल गया
कहाँ चलूँ की झंझट में
गिरा सेठ की गुल्लक में
यहाँ चला न वहाँ चला।

किसी तरह मौका पाकर
गुल्लक से निकला बाहर,
खुली सड़क थी इधर-उधर
लुढ़क चला सर-सर, सर-सर।

यहाँ चला फिर वहाँ चला
मौज उड़ाई, जहाँ चला।

(सरला प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित टिन्नी जी, ओ टिन्नी जी से साभार। बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक-माला। चयन-संपादन - प्रकाश मनु)

8 comments:

  1. प्रिय मनु जी,

    सरवेश्वर जी की कलकत्ते में खो गए लल्ला पूरी कविता मेरे पास है हालांकि आपसे कोई चीज़ जब भी मिलती है उसकी खुशी अलग ही होती है.यह सूचना मेरे लिए नई है की इसके लल्ला श्री योगेन्द्र कुमार लल्ला ही हैं. जान कर खुशी हुई. कुच्छ दिनों में सर्वेश्वर जी के पूरे बाल साहित्य पर मैं अपने ब्लॉग पर शीघ्र लिखने वाला हूँ. मेरी लिंक है- www.rameshtailang.blogspot.coom. आपने मेरी बाल कविताओं के वारे में जो लिखा और जैसी सहृदयता से लिखा उसे आप जैसा ही कोई दृष्टा लिख सकता है. आपसे कोई भी संवाद करते समय मैं एक nostaligia में पहुँच जाता हूँ. और क्या कहूँ रमानाथ अवस्थी जी के एक गीत का मुखडा है: अनाहूत ही आ पहुंचा हूँ आज तुम्हारे द्वार, ठुकरादो या प्यार करो ये तो तेरा अधिकार.

    सादर-रमेश तैलंग

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  2. रमेश तैलंग जी की बाल कविताएँ अजब अनोखी हैं . बहुत ही प्यारी और खिलंदड़ी . बच्चों के साथ साथ बड़ों का भी मन झूम जाता है .

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  3. मैंने भी अपनी बाल कविताओं का एक ब्लाग बनाया है . समय मिले तो आप देखिएगा . मेरी एक पुस्तक पढ़ ले बिटिया नाम से प्रकाशित हुयी है . सुनैना अवस्थी

    http://sunainaawasthi.blogspot.com/

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  4. धन्यवाद भाई तैलंग और सुनैना जी। लगा कि एक सार्थक काम हुआ।

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  5. तैलंग भाई, अनाहूत क्यों तुम्हें तो भाई हम पलकों पर बिठाएंगे। मेरा दिल ही जानता है कि मैं तुमसे कितना स्नेह करता हूँ और चाहता हूँ कि तुम उस मुकाम पर पहुँचो, जिसके तुम असली हकदार हो। बस, एक ही गुजारिश है, कभी बड़बोले मत होना और कभी अपने पर अभिमान मत करना। तुम्हारा ब्लाग भी देखा। उस पर फिर कभी। सस्नेह, प्र.म.

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  6. रमेश तैलंग जी की कविताओं का मैं शुरू से प्रशंसक रहा हूँ। उनके बारे में पढना अच्‍छा लगता है।
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    हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
    अब क्‍या दोगे प्‍यार की परिभाषा?

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  7. प्रिय तैलंग,
    एक बात और कहनी थी कि यह जो तुम्हारे अंदर अपने से बाहर आकर दूसरों को याद करने और उनके बारे में कुछ करने का भाव है, यह बड़ा ही सुंदर, बड़ी ही शुभ है। प्यारे भाई, इसे बचाए रखना हर हाल में। वरना तो मैंने देखा है, लोग अपने सिवा न कुछ देखना, न जानना और न पढ़ना चाहते हैं। देखकर इतना बुरा लगता है कि क्या कहूँ। फिर ऐसे साहित्य से क्या लाभ जो हर किसी को अपने भीतर के अंधकूप में कैद कर दे।
    सर्वेश्वर जी पर जरूर काम करना। आज जो बाल कविता मेरे-तुम्हारे पास बहकर आई है, वह ऐसी कभी न होती, अगर सर्वेश्वर न होते। वे कितने बड़े शख्स थे और उनका कितना बड़ा काम है बाल साहित्य में, लोग अब भी समझ नहीं पा रहे हैं।
    सर्वेश्वर जी की कविता में मेले में लल्ला वाली बात कहीं से पढ़ी नहीं है,या किसी ने बताई नहीं। बल्कि यह अचानक मन में कौंधी थी। तुम भी दोबारा कविता ध्यान से पढ़ो, तो लगेगा कि कलकत्ते के मेले में खोए हुए लल्ला बेशक योगेंद्रकुमार लल्ला ही हैं।
    और भाई, तुम्हारे ब्लाग पर इतने भीषण रंगों की चकाचौंध क्यों है। नानी की चिट्ठी में तो एक सादा से घर सरीखा लिपा-पुता आँगन या फिर वैसी सादगी होनी चाहिए। जैसे-जैसे पढ़ूँगा, लिखता रहूँगा।
    सस्नेह, प्र.म.

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  8. तैलंग जी की कवितायें तो वाकई जादुई होती हैं। बिना पढ़े मन मानता ही नहीं। इसके अलावा स्व.रामानुज त्रिपाठी जी, राजनारायण चौधरी जी, हरीश निगम जी, घमंडीलाल अग्रवाल जी, राजा चौरसिया जी, जगदीशचंद्र शर्मा जी, मोहम्मद फहीम जी की भी बाल कविताएं वास्तव में बाल कविताएं होती हैं।

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