1.छूटता हुआ घर
अब इस घर की दीवारें हिलती हैं
दरवाजे चिंचियाते हैं। सफेदी
मकड़ी की जालेदार टाँगों में फँसी है
झड़ा हुआ पलस्तर और मैला एकांत
सब धकियाते
फटकारते हैं बाहर निकल जाने को।
कल ही छोड़कर चला जाऊँगा यह घर
यह संसार।
कुछ पन्ने खाली कुछ भरे कुछ रजिस्टर कुछ प्रमाण-पत्र
डेढ़-दो दर्जन कविताएँ चार-छै अपमान लेकर
निकल जाऊँगा बाहर
खुद की कविताओं की लय पर टूटता हुआ।
कि चाहे जो भी हो। मगर कुछ हो
हो अभिमानी अभिमन्यु की हजार-हजारवीं हत्या
लेकिन परिभाषा पूरी हो जिंदगी की!
जाने से पहले मगर एक बार मुड़कर देखूँगा जरूर
पूछना चाहूँगा चटखती दीवारों से फर्श से
जहाँ खून जलाकर रची थीं कविताएँ
कि जब चला जाऊँगा तो पीछे
एकाध टूटी लाइन क्या दुहराएगी यहाँ की हवा?
2. लिखूँ?
कविता लिखूँ, न लिखूँ?
कविता के अलावा और भी हैं बहुत काम
और भी हैं बहुत काम परिणाम कुहराम
उस दुनिया में जिसमें जीता हूँ
जिसमें नहीं है कविता बाकी सब है
रोटी चावल चीनी की पुकार - जवाब में डैश है लंबा
और फटे झोले नदारद जेब की कातरता
हर बार
हर बार प्रश्नास्पद आँखें। क्षमा-याचना। उधार
पत्नी का पीला, उदास अधपका चेहरा
और भूख और भूख और अँधेरे की मार
और दिन और रात का निरंतर अपमान का सौदा
निरंतर रौंदा हुआ सुख जिंदगी का
कागज-पत्तर प्रमाण-पत्रों की निरर्थक उपलब्धि : एक भार-साभार!
दफ्तरों की हिंसक जड़ता दोस्तों की दया
बीते होने का असमय एहसास : मृत्युमय जीवन
और खुर जैसे पैरों रूखे चेहरे की
हास्यास्पदता
तो फिर कविता...
कविता लिखूँ, न लिखूँ?
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