मेरे कविता-संग्रह छूटता हुआ घर में एक कविता है - एक बच्ची की पापा से दो बातें। इसमें बात रावण से शुरू होती है और फिर बढ़ते-बढ़ते बहुत कुछ को लपेट लेती है। इस कविता में जाने क्या है कि पढ़ते हुए आज भी आँखें भीग जाती हैं - प्र.म.
एक बच्ची की पापा से दो बातें
क्यों पापा, आप भी करते हैं क्या खूब कमाल की बातें
कि रावण आया था आपके दफ्तर
और उसकी मूँछें थीं ऐन बड़ी-बड़ी
मूँछें थीं या गलमुच्छे (गलमुच्छे ही कहते हैं न पापा?)
आपने उन्हें हाथ से छुआ था पापा, सच्ची-मुच्ची
डर नहीं लगा!
देखो झूठ न बोलना पापा!
पापा, सब रावणों की क्या मूँछें होती हैं
ऐसी-ऐसी टेढ़ी-बाँकी, रावण बड़े गंदे होते हैं न पापा
तभी तो आप बोल रहे थे उस रोज मम्मी से
बॉस साला रावण की औलाद है... रावणों को
कौन बनाता है पापा? कैसी होती है
रावण की औलाद?
अर्रे! तो क्या वो गंदा वाली नहीं था पापा? तो फिर
कैसा रावण रामलीला में कैसे
करता था पार्ट, क्यों फिर जला दिया
गया पापा पिछली दफा और फिर बच कैसे गया
ये तो कुछ चक्कर ही अजब है पापा!
चक्कर तो मगर एक और भी है कि अगर सारे गंदे ही
होते हैं रावण तो मैम तो मेरी पापा
मारती बहुत है, कोई बात नहीं सुनती सीट पर
खड़ा कर देती है, क्या वो भी
रावण होती है पापा?
सारे दिन बस सिर खाती रहती है मोटी वाली मैम कि लिखो
लिखो लिखो लिखने से जैसे हम
बन जाएँगे कलक्टर मेरी कापी एक दिन
डस्टबिन में फेंक दी थी पापा (कितनी गंदी बात!)
उस पर कवर नहीं था बस्स!
कवर क्या कापी से ज्यादा
जरूरी होता है पापा?
पापा मेरे लिए एक बंदूक लाना
असली धुएँ वाली और एक स्केल भी
मैम को मारूँगी
वो जाने क्या समझती है अपने आपको
खिलौने वाले कमरे में कभी जाने ही नहीं देती
ये भी नहीं समझती कि फिर ये खिलौने
हैं किस काम के अगर बच्चे ही न खेलें तो!
अच्छा एक बात बताओ पापा
हमें खिलौने के बगैर अच्छा नहीं लगता
तो खिलौने भी तो हमारे बिना उदास हो जाते
होंगे पापा, है न पापा?
अजी लो!
पकड़ी गई न आपकी भी चोरी
आप हमारे लिए खिलौने कब लाएँगे पापा आज तो
बता ही दीजिए साफ-साफ
आप तो कहते थे न लाऊँगा मैं दो गुड़िया दो गुड्डे
फिर खूब शादी करना उनकी गरमियों भर
दोनों बहनें मजे से
छुट्टियाँ तो पापा गरमी की बीत ही गईं
तो फिर कब करेंगे हम शादी कब होंगे बच्चे
नन्ही को कब सिखाऊँगी गुड्डे-गुडिय़ा वाला खेल?
और ये जो मकान नंबर ग्यारह सौ इकतीस का
टिंकू है न, बहुत खराब है पापा
अपने खिलौने तो बिल्कुल छूने ही नहीं देता
और मेरा एक ही भालू था वो फाड़ दिया
गरदन तो अब लटक ही गई एक आँख
भी गई
एक बात बताओ जरा पापा, टिंकू के पापा
इतने खिलौने लाते हैं कहाँ से इतने इतने इतने
चाबी वाले लाल-पीले-धानी खिलौने शोविंडो
में रखते हैं सजाकर
उनके पास बहुत पैसे होते होंगे पापा
आपसे ज्यादा पढ़े हुए हैं वे क्या
आपसे ज्यादा करते हैं मेहनत?
पर मैंने तो देखा है पापा कि आप तो
लिखते ही रहते हैं दिन भर कभी-कभी सुबह-सुबह
घर से निकल जाते हैं—काम करना है!
मम्मी को बताकर और हम सोते ही रह जाते हैं
(जागते हैं तो बहुत बुरा लगता है पापा
पर मम्मी कहती है काम जरूरी है
उसी से तो पैसे आते हैं घर में!)
तो फिर...
पैसे ज्यादा क्यों नहीं आते पापा?
क्या पढऩे-लिखने से कुछ नहीं होता पापा
न मेहनत से? तो फिर झूठ है न आपकी बात
हमसे फिर क्यों कहते हैं खूब लिखो
खूब पढ़ो बेटी नंबर लाओ अच्छे
मेहनत है सफलता की कुंजी...
अरे पापा, आप तो उदास हो गए बच्चों को
पूछने नहीं चाहिए न ऐसे-ऐसे सवाल
आपकी आँख में आँसू! लाओ मैं
पोंछ देती हूँ पापा, पापा आप हँसना सीखो खूब
खूब... मैं किसी से नहीं कहूँगी मेरे पापा
को पैसे मिलते हैं जरा कम कुछ नहीं माँगूँगी आपसे
एक ही खिलौने से चला लूँगी काम मेरा भालू वैसे ही
सबसे बड़ा है क्या हुआ जो एक आँख फूट गई उसकी
झूल गई है गरदन है न पापा?
अब तो मान भी जाओ न पापा हँसो हँसो
हँसो तो जरा बेटी के लिए
हा-हा, हा-हा-हा, हा-हा-हा
हा-हा, हा-हा
जी हाँ, ऐसे ही... मेरे अच्छे पापू जी!
मार्मिक ऒर प्रेरक कविता हॆ ।कितने ही आयामों को एक साथ बांधे । बधाई ।
ReplyDeleteदिविक रमेश
धन्यवाद दिविक जी, मैं अपने ब्लाग पर अनौपचारिक रूप से आगे भी कुछ न कुछ जरूर देता रहूँगा। हाँ, साहित्य से जुड़े और कौन से ब्लाग आप सजेस्ट करेंगे, जहाँ कभी-कभी जाया जाए और विचार साझे किए जाएँ। पता चलेगा तो रोजाना कुछ समय मैं ब्लाग्स पर बिताना पसंद करूँगा। ताकि इसी रूप में मित्रों से जुड़ सकूँ। कविता आपको अच्छी लगी, फिर से धन्यवाद। प्र.म.
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